Tuesday, 10 April 2018

कही गुम हो गया बचपन?

बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब बगैर किसी तनाव के मस्ती से जिंदगी का आनन्द लिया जाता है। नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलती हँसी, वो मुस्कुराहट, वो शरारत, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना ये सब बचपन की पहचान होती है। सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं। क्या कभी आपने सोचा है कि आज आपके बच्चों का वो बेखौफ बचपन कहीं खो गया है? आज मुस्कुराहट के बजाय इन नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव क्यों छाया रहता है?
अपनी छोटी सी उम्र में पापा और दादा के कंधों की सवारी करने वाले बच्चे आज कंधों पर भारी बस्ता टाँगे बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस की सवारी करते हैं। छोटी सी उम्र में ही इन नन्हो को प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल कर दिया जाता है और इसी प्रतिस्पर्धा के चलते उन्हें स्वयं को दूसरों से बेहतर साबित करना होता है। इसी बेहतरी व प्रतिस्पर्धा की
कश्मकश में बच्चों का बचपन कहीं खो सा जाता है। इस पर भी माँ-बाप उन्हें गिल्ली-डंडे, लट्टू, कैरम व बेट-बॉल की जगह वीडियोगेम थमा देते हैं, जो उनके स्वभाव को ओर अधिक उग्र बना देते हैं। अक्सर यह देखा जाता है कि दिनभर वीडियोगेम से चिपके रहने वाले बच्चों में सामान्य बच्चों की अपेक्षा चिड़चिड़ापन व गुस्सैल प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। आजकल होने वाले रियलिटी शो भी बच्चों के कोमल मन में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ा रहे हैं। नन्हे बच्चे जिन पर पहले से ही पढाई का तनाव रहता है। उसके बाद कॉम्पीटिशन में जीत का दबाव इन बच्चों को कम उम्र में ही बड़ा व गंभीर बना देता है। अब उन्हें अपने बचपन का हर साथी अपना प्रतिस्पर्धी नजर आता है, जिसका बुरा से बुरा करने को वे हरदम तैयार रहते हैं।
 ‍नौकरीपेशा माता-पिता के लिए अपने बच्चों को दिनभर व्यस्त रखना या किसी के भरोसे छोड़ना एक फायदे का सौदा होता है क्योंकि उनके पास तो अपने बच्चों के लिए खाली वक्त ही नहीं होता है इसलिए वे बच्चों के बचपन को छीनकर उन्हें स्कूल, ट्यूशन, डांस क्लासेस, वीडियोगेम आदि में व्यस्त रखते हैं, जिससे कि बच्चा घर के अंदर दुबककर अपना बचपन ही भूल जाए। बाहर की हवा, बाग-बगीचे, दोस्तों के साथ मौज-मस्ती यह सब क्या होता है, उन्हें नहीं पाता। पढ़ाई-लिखाई अपनी जगह है, परंतु बच्चों का बचपन भी दोबारा लौटकर नहीं आता है। कम से कम इस उम्र में तो आप उन्हें खुला दें और उन्हें बचपन का पूरा लुत्फ उठाने दें। । यही नहीं वे बच्चों और युवाओं के साथ निरन्तर सम्वाद कायम रखते हैं, ताकि उनके दृष्टिकोण और विचारों को समझा जा सके। आज यह सोचने की जरूरत है कि जिन बच्चों पर देश के भविष्य की नींव टिकी हुई है, उनकी नींव खुद ही कमजोर हो तो वे भला राष्ट्र का बोझ क्या उठायेंगे।
प्रत्येक भारतीय नागरिक स्वयं को अधूरा समझने लगता है। हम स्वयं को मॉडर्न समझने में गर्व अनुभव करते हैं।  इस दौड़ के कारण पारिवारिक, सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। पारिवारिक परंपराएं व संस्कार लुप्त होते जा रहे हैं। सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है तथा हमारी पुरातन भारतीय संस्कृति भी सिसकियां भर रही है। दौड़ में इन सभी को पावों तले रौंदा जा रहा है। इस अंधी दौड़ में हमारे बच्चों का बचपन बुरी तरह से कुचला जा रहा है। आज बच्चों को माता-पिता की गोदी नसीब नहीं है, क्योंकि समाज में अपने रुतबे तथा होड़ ने अजीविका के लिए माता-पिता को बच्चों से दूर किया है। उनका स्थान वेतनभोगी नौकरानी या आया ने ले लिया है।  नौकरानी या आया क्या कभी माता की ममता, प्यार दे पाएगी? दादा-दादी तथा परिवार के सदस्य पहले ही दूर कर दिए गए हैं, क्योंकि हमारा देश निरंतर एकल परिवार की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में बच्चों का लालन-पालन एक बंद कमरे में एक अजनबी महिला द्वारा किया जाता है, जहां न संस्कार हैं, न ही संस्कृति।  जैसे ही बच्चा अढ़ाई वर्ष का होता है, निजी विद्यालयों की उस बच्चे पर पड़ती है, तो तीन वर्ष या उससे पूर्व ही कामकाजी माता-पिता इन विद्यालयों के हवाले कर देते हैं। जो बच्चा अपने कल्पना लोक में आनंद के हिलोरों में खोया रहता है, उसे कान्वेंट स्कूल के नियमों की बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है। उसकी कोमल पीठ पर भारी बोझ वाला बस्ता लाद दिया जाता है। जितना बड़ा बस्ता, उतना ही नामी स्कूल। स्कूल में कभी अंग्रेजी तो कभी साइंस, गणित का बोझ।
 समझना मुश्किल है कि नन्हा सा कोमल बच्चा इसे कैसे उठाता होगा,   मेरे जीवन का एक व्यक्तिगत अनुभव इस वास्तविकता का एहसास करवा चुका है कि बिलखते बचपन को मोटी-मोटी किताबों की नहीं, बल्कि प्यार दुलार की आवश्यकता होती है। यही बच्चों के शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास का आधार भी है। अंतिम चरण तक बच्चों का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। उनका मानसिक विकास रुक जाता है। हमारे पास अपने बच्‍चों के लिए अब समय ही नहीं है,जब बचपन याद आता है तो हमजोलियों स्‍कूल और शरारतों का इतिहास मन के किसी कोने से निकल कर आंखों के सामने तैरने लगता है, बदलते दौर में क्‍या हमें अपना वही पुराना बचपन कहीं दिखता है।गली में न तो अब गुल्‍ली डंडा खेलते मासूमों की जमात है और न ही शरारतों से मोहल्‍ले को परेशान करने वाला अल्‍हडपन। रोजमर्रा की व्‍यस्‍त जिंदगी ने बच्‍चों के जीवन को बडे पैमाने पर प्रभावित किया है, कि क्‍या हमारे नौनिहाल भी इसी तरह अपने खानदान का नाम रोशन करेंगे। यह हम सोचते तो हैं पर इसके लिए अपने बच्‍चों को हम समय ही नहीं दे पाते। खोया वक्‍त कभी वापस नहीं आता और बचपन गुजर जाने के बाद उसे लौटाया नहीं जा सकता।

Monday, 2 April 2018

भारत का सबसे सस्ता भोजनालय-इंडियन पार्लियामेंट कैंटीन

सांसदों के भोजन पर 74 करोड़ की सब्सिडी!
भोपाल। देश में पेट्रोलियम पदार्थो को बाजार के हवाले किया जा चुका है, हर रोज दाम ऊंचे-नीचे हो रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गरीबों को रसोई गैस उपलब्ध कराने के लिए आमजन से गैस सिलेंडर पर मिलने वाली सब्सिडी छोड़ने का आग्रह करते नजर आते हैं। मगर आपको यह जानकार हैरानी होगी कि हमारे माननीय सेवकों यानी संसद सदस्यों को संसद की कैंटीनों से सस्ता भोजन मुहैया कराने पर पांच वर्षो में 74 करोड़ रुपये की सब्सिडी देनी पड़ रही है।वैसे तो निर्वाचित प्रतिनिधि अपने को ह्यजनता का सेवक बताने से नहीं हिचकते, मगर एक बार चुनाव जीतने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति में आने वाले बदलाव का किसी को अंदाजा नहीं है। एक तरफ जहां सांसदों को लगभग डेढ़ लाख रुपये मासिक पगार व भत्ते मिलते हैं, वहीं बिजली, पानी, आवास, चिकित्सा, रेल और हवाई जहाज में यात्रा सुविधा मुफ्त मिलती है। इतना ही नहीं, एक बार निर्वाचित होने पर जीवनर्पयत पेंशन का भी प्रावधान है। संसद के दोनों सदनों- लोकसभा और राज्यसभा में करोड़पति सांसदों की कमी नहीं है, उसके बावजूद उन्हें संसद परिसर में स्थित चार कैंटीनों में सस्ता खाना दिया जाता है। वास्तविक कीमत और रियायती दर पर दिए जाने वाले खाने के अंतर की भरपाई लोकसभा सचिवालय यानी सरकार को करनी होती है। औसत तौर पर हर वर्ष कैंटीन से सांसदों को उपलब्ध कराए जाने वाले सस्ते भोजन के एवज में 15 करोड़ की सब्सिडी के तौर पर भरपाई करनी होती है। मध्य प्रदेश के नीमच निवासी सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ ने सूचना के अधिकार के तहत सांसदों को रियायती दर पर मिलने वाले भोजन के चलते सदन या सरकार पर पड़ने वाले आर्थिक भार की जो जानकारी हासिल की, वह चौंकाने वाली है। बताया गया है कि बीते पांच सालों में सांसदों के सस्ते भोजन पर 73,85,62,474 रुपये बतौर सब्सिडी दी गई। गौड़ द्वारा मांगी गई जानकारी पर लोकसभा सचिवालय की सामान्य कार्य शाखा के उप-सचिव मनीष कुमार रेवारी ने जो ब्यौरा दिया है, उससे एक बात तो साफ होती है कि माननीय सेवकों ने हर वर्ष सिर्फ कैंटीन में किए गए भोजन से सरकार पर औसतन 15 करोड़ का भार बढ़ाया है।
 
सूचना के अधिकार के तहत दिए गए ब्यौरे के मुताबिक, वर्ष 2012-13 से वर्ष 2016-17 तक संसद कैटीनों को कुल 73,85,62,474 रुपये बतौर सब्सिडी दिए गए।
अगर बीते पांच वर्षो की स्थिति पर गौर करें तो पता चलता है कि वर्ष 2012-13 में सांसदों के सस्ते भोजन पर 12,52,01867 रुपये, वर्ष 2013-14 में 14,09,69082 रुपये सब्सिडी के तौर पर दिए गए। इसी तरह वर्ष 2014-15 में 15,85,46612 रुपये, वर्ष 2015-16 में 15,97,91259 रुपये और वर्ष 2016-17 में सांसदों को सस्ता भोजन मुहैया कराने पर 15,40,53,3654 रुपये की सब्सिडी दी गई। महंगाई के इस दौर सवाद चखना भी महंगा हो गया लेकिन पूरे देश में से एक ऐसी जगह है, जहां खाने वाली चीजें बहुत सस्ती मिलती हैं. यह जगह है,इंडियन पार्लियामेंट कैंटीन यहां खाने वाली चीजों की कीमतों कुछ इस तरह हैं. संसद के कैंटीन में फ्राइड फिश विद चिप्स की कीमत है 25 रुपए, चिकन करी- 29 रुपए, मटन करी 20 रुपए, दाल 1.50 रुपए, मछली 13 रुपए, रोटी और मसाला डोसा 6 रुपए में मिलता है. क्या इतने कम कीमत पर कहीं इतना लजीज खाना मिल सकता है. संसद भवन की कैंटीनों में सस्ता खाना इसलिए है क्योंकि खाने पर सब्सिडी दी जाती है और ये कीमत लोकसभा सचिवालय चुकाता है. संसद की ये वही कैंटीन है जहां खुद पीएम मोदी ने खाना खाने के बाद विजिटर्स बुक में लिखा था अन्नदाता सुखी भव. जी हां, भोजन की जिस थाली की कीमत सांसद 29 रुपए देते हैं, बाजार में उसकी कीमत 500 से 1000 रुपए तक होती है. जी हां यह भोजन किसी फाइव स्टार भोजन से कम नहीं होता है. वो तो संसद की सब्स‍िडी है, जो इसकी कीमत इतनी कम है. एक सांसद का वेतन 80 हजार रुपए होता है. साथ में कई प्रकार के भत्ते सरकार की ओर से दिये जाते हैं, लेकिन अगर भोजन की बात करें, तो उनके दाम देख आप भी शर्मा जायेंगे. खैर चलिये आपको संसद भवन की कैंटीन की रेट लिस्ट भी दिखा देते हैं : चाय 1 रुपए, सूप 5.50 रुपए, दाल 1.50 रुपए, मील्स 2.00 रुपए, सब्जी 8.00 रुपए, रोटी 1.00 रुपए, चिकन 24.50 रुपए, दोसा 4.00 रुपए, वेज बिरयानी 8.00 रुपए,  मछली 13.00 रुपए.केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने कहा, संसद की कैंटीन में खाने की कीमतें समय-समय पर लोगों के बीच चर्चा का विषय रही हैं. इसी बात को देखते हुए लोकसभा अध्यक्ष ने संसद की खाद्य समिति को इस पर ध्यान देने के लिए कहा था. जिसके चलते अब ये समीक्षा की गई कि कैंटीन में खाने के दाम बढ़ने चाहिए.जानकारी के मुताबिक, समिति की रिपोर्ट मिलने के बाद लोकसभा अध्यक्ष ने कई फैसले लिए जिनमें से यह फैसला सबसे महत्वपूर्ण रहा कि संसद की कैंटीन अब  गैर मुनाफा, गैर नुकसान के आधार पर काम करेगी. इसमें कहा गया है कि विभिन्न भोजन सामग्रियों की कीमतें बढ़ा दी गई हैं और इन्हें लागत की मूल कीमत पर बेचा जाएगा आरटीआई से मिली एक जानकारी के मुताबिक संसद में कैंटीन को पिछले पांच सालों में 60.7 करोड़ की सब्सिडी दी गई है. यह फैसला संसदीय खाद्य समिति की रिपोर्ट के आधार पर लिया गया है. अध्यक्ष ने इस समिति को कैंटीन को मिलने वाली सब्सिडी के मामले पर विचार करने के लिए गठित किया था.  नए नियम के अनुसार कीमतें कुछ इस तरह होंगी. जो वेज थाली 18 रुपये में मिलती थी वो अब 30 रुपये में मिलेगी. वहीं नॉन-वेज थाली 33 रुपये की बजाये 60 रुपये में मिलेगी. इसी तरह चिकन करी 29 रुपये की बजाये 61 रुपये में मिलेगी.  लोकसभा सचिवालय के अनुसार इन कीमतों की समय-समय पर समीक्षा की जाएगी. इसके अलावा कैंटीन में खाने के आइटम भी सीमित बनेंगे ताकि खाने की बबार्दी न हो. वहीं, टी/कॉफी वेडिंग मशीन लगाने की भी योजना है ताकि कर्मचारियों पर ज्यादा भार न आए. नई कीमतें सांसदों, लोकसभा और राज्यसभा से जुड़े स्टाफ, मीडियाकर्मियों, सुरक्षाकर्मियों और बाहर से आने वाले लोगों पर लागू होंगी.
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