प्रेमशंकर पुरोहित |
आज की शिक्षा बचपन को निगल रही है। वर्तमान सन्दर्भ में यह पूर्णत: सत्य है। शिक्षा आजकल किताबों को रटकर पुरे-पुरे अंक लाने का पर्याय हो गयी है। इस दौड़ ने बच्चों के जीवन को किताबों के बोझ तले दबा कर उनके बचपन को दफन कर दिया है। रही सही कसार तथाकथित उच्च-स्तरीय कोचिंग सेंटरों ने कर दी है। बच्चे विद्यालय से आते ही कोचिंग के लिए चले जाते हैं और फिर देर शाम को घर वापिस आते हैं. ना तो उनके पास खेलने का समय रहता है और ना ही किसी मनोरंजन या शौक के लिए। बच्चे पढाई के बोझ तले ऐसे दब गए है की उन्हें साँस लेने तक की फुरसत नहीं होती है । आये दिन क्लास टेस्ट, हर-हर महीने में परीक्षा और उसके ऊपर तरह-तरह की और परीक्षाएं जैसे ओलिंपियाड, और ज्याने क्या-क्या। फिर ये कम हो तो पाठशाला से प्रोजेक्ट भी आ जाते है जिसमे बच्चें और माता-पिता को भी इसमें सहियोग करना पडता है खेल कूद की बात करें तो उसमे भी बच्चों को खुल के खेलने का मौका नहीं मिलता। सभी माता पिता को अपने बच्चे में सचिन तेंदुलकर, साइना नेहवाल, मेस्सी माइकल जैक्सन , जैसे बड़े बड़े खिलाडी ही दिखते है, इसलिए स्कूल के बाद इन खेलों की कोचिंग के लिए बच्चे और घरवाले भागते दिखाई देते है । आज की शिक्षा प्रणाली गहरा दोष पूर्ण है। जिस तरह से छात्रों को उनके सीखने और जीवन के हर पहलू के बारे में सोचने और नियंत्रित करने के लिए शिक्षा प्रणाली का प्रयास अच्छे से अधिक नुकसान पहुंचा रहा है आज स्कूल शिक्षा के सही फोकस से दूर गिर रहे हैं ,आज के शिक्षा के एजेंडे का उप-उत्पाद छात्रों में स्वास्थ्य समस्या है।
अत्यधिक दबाव, नींद की कमी, और काम के ढेर बच्चों में दरार करने के लिए पैदा कर रहे हैं कोई छात्र सफल नहीं हो सकता है यदि वह स्वस्थ नहीं है। स्वस्थ, परिवार और दोस्तों के लिए, और अतिरिक्त गतिविधियों की शिक्षा के अलावा मूल्यवान होना चाहिए, लेकिन स्कूल इन बातों के लिए छात्रों को समय नहीं दे रहे हैं। पहले तीसरी क्लास तक बच्चों को सिर्फ एक बुक होती थी एवं लकडी की तख्ती पर खडी व कलम से लिखते थे उससे अक्षर व लिखाई बहुत ही सुन्दर होती थी। लेकिन अब तीन साल की उम्र पर किताबों का पुलिंदा लाद दिया जाता है। क्या बच्चे को खोलने का अवसर दिया। दिया एक कम्टीशन, जो पडोस के बच्चें से अच्छे नम्बर लान एवं आगे निकलना है। हम अपने बच्चे को पड़ोसी के बच्चे से थोड़ा बेहतर बनाना चाहते हैं। एक तीन साल का बच्चा अगर कहता है,मैं डॉक्टर बनना चाहता हं ू , तो हर कोई अपने बच्चे से कहेगा,अरे, पड़ोसी का बच्चा डॉक्टर बनना चाहता है। यह अपने आप में एक गंभीर समस्या है। तुम क्या बनना चाहते हो? यदि आप का बच्चे से पूछा जाता है वह कहता है मुझे नहीं पता। अरे कुछ तो बताओ यह शिक्षा व्यवस्था की बीमारी नहीं है, यह बीमारी समाज में पैठ गई है। हमारी शिक्षा व्यवस्था तो तो बस उसी हिसाब से चलने की कोशिश कर रही है।बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब हम तनाव से मुक्त होकर मस्ती से जीते हैं। नन्हें गुलाबी होंठों पर बिखरती फूलों सी हंसी, मुस्कुराहट। बच्चों की शरारत, रूठना, जिद करना, अड़ जाना ही बचपन है, लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर हमें बताना चाहिए कि क्या हमारे बच्चों को ऐसा वातावरण मिल रहा है? क्या यह सत्य नहीं कि उनका बचपन तनाव की काली छाया से कलुषित हो रहा है? क्या आप इस बात से इंकार कर सकते हैं कि हर सुबह स्कूल जाने से बचने के लिए वे पेट दर्द से लेकर सिरदर्द तक के अनेक बहाने नहीं बनाते हैं और क्या वे मुस्कुराते हुए भारी बस्ता टांगे खचाखच भरी स्कूल बस पर सवार होते हैं? क्या उनके नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव नहीं होता? स्कूल के बाद ट्यूशन, होमवर्क, ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट जो उन बच्चों से तो क्या उनके मां-बाप से भी न बनें और न जाने क्या-क्या? इस पर भी हम सामान्य बच्चों को अपेक्षाकृत अधिक चिड़चिड़ा, गुस्सैल प्रवृत्ति को उन्हें कोल्डड्रिंक, पिज्जा, बर्गर, पास्ता, चाउमिन खिलाकर शांत करने की भूल करते है,ं लेकिन भारी बस्ते के बोझ तले कराहते उसके बचपन की दूसरों से तुलना कर उसे हीन बताने का अपराध भी करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि केवल प्राथमिक कक्षाओं का ही नहीं बल्कि माध्यमिक स्तर के छात्रों का बस्ता काफी भारी है माध्यमिक कक्षाओं के बाद उच्च शिक्षा में प्रवेश की तैयारी के नाम पर देश भर में फैल रहे कोचिंग संस्थान लाखों की फीस लेकर बोझ को बस्ते में मन-मस्तिष्क तक पहुंचाने में अपना योगदान कर रहे हैं। वैसे यह समस्या केवल भारत की नहीं है, दुनियां के अनेक देशों ने बस्ते का बोझ कम करने में सफलता भी प्राप्त की है, लेकिन इसके तरीके निकाले गए हैं। वहां बच्चे की रुचि और प्रतिभा के अनुसार विषय में आगे बढ़ाया जाता है।
अनावश्यक बोझ का कोई प्रश्न ही नहीं होता। हमारे यहां बड़ी-बड़ी बातें तो हुई लेकिन समय के साथ शिक्षा में जो गुणात्मक सुधार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। किताबी कीड़ा बनकर अथवा रट्टा लगाकर ज्ञान प्राप्त करने की गलत परम्परा के स्थान पर व्यावहारिक ज्ञान देकर बस्ते का बोझ कम किया जा सकता है। नयी शिक्षा नीति के प्रारूप में भी इसपर बहुत ध्यान नहीं दिया गया, अत: बहुत आशा करना व्यर्थ है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसा हो ही नहीं सकता।
Nice it helped me a lot 😊😊😊😊
ReplyDeleteThanku very much it is very helpful in my speech 😁😁😊
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