विडंबना: भारत में शिक्षा का बाजारीकरण
शिक्षक समाज में उच्च आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व होता है। किसी भी देश या समाज के निर्माण में शिक्षा की अहम भूमिका होती है, कहा जाए तो शिक्षक समाज का आइना होता है। हिन्दू धर्म में शिक्षक के लिए कहा गया है कि आचार्य देवो भव: यानी कि शिक्षक या आचार्य ईश्वर के समान होता है। यह दर्जा एक शिक्षक को उसके द्वारा समाज में दिए गए योगदानों के बदले स्वरुप दिया जाता है। शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूज्यनीय रहा है। कोई उसे गुरु कहता है, कोई शिक्षक कहता है, कोई आचार्य कहता है, तो कोई अध्यापक या टीचर कहता है ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है। गुरु या शिक्षक का संबंध केवल विद्यार्थी को शिक्षा देने से ही नहीं होता बल्कि वह अपने विद्यार्थी को हर मोड़ पर उसको राह दिखाता है और उसका हाथ थामने के लिए हमेशा तैयार रहता है एक शिक्षक या गुरु द्वारा अपने विद्यार्थी को स्कूल में जो सिखाया जाता है या जैसा वह सीखता है, वे वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है जैसा वह अपने आसपास होता देखते हैं। इसलिए एक शिक्षक या गुरु ही अपने विद्यार्थी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
सफल जीवन के लिए शिक्षा बहुत उपयोगी है जो हमें गुरु द्वारा प्रदान की जाती है। विश्व में केवल भारत ही ऐसा देश है यहां पर शिक्षक अपने शिक्षार्थी को ज्ञान देने के साथ-साथ गुणवत्तायुक्त शिक्षा भी देते हैं,किसी भी राष्ट्र का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी है तो उस देश को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी तो वहां की प्रतिभा दब कर रह जायेगी बेशक किसी भी राष्ट्र की शिक्षा नीति बेकार हो, लेकिन एक शिक्षक बेकार शिक्षा नीति को भी अच्छी शिक्षा नीति में तब्दील कर देता है।शिक्षकों द्वारा प्रारंभ से ही पाठ्यक्रम के साथ ही साथ जीवन मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है। शिक्षा हमें ज्ञान, विनम्रता, व्यवहारकुशलता और योग्यता प्रदान करती है। शिक्षक को ईश्वर तुल्य माना जाता है। आज भी बहुत से शिक्षक शिक्षकीय आर्दशो पर चलकर एक आदर्श मानव समाज की स्थापना में अपनी महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। लेकिन इसके साथ-साथ ऐसे भी शिक्षक हैं जो शिक्षक और शिक्षा के नाम को कलंकित कर रहे हैं। और ऐसे शिक्षकों ने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है, जिससे एक निर्धन शिक्षार्थी को शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है। धन के अभाव से अपनी पढ़ाई छोड़नी पडती है। प्राचीन समय में छात्र गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। वहां गुरु छात्र को संस्कारित बनाता था लेकिन आधुनिक जीवन में लोगों के पास शायद विकल्प कम रह गए हैं और ये कोचिंग संस्थान इसी का फायदा उठाते हैं। शिक्षा को व्यवसाय बनाकर उसका बाजारीकरण किया जा रहा है। निजी कोचिंग सैंटर हर गली, मोहल्ले और सोसायटी में सभी को झूठे प्रलोभन देकर अपने जाल में फंसा रहे हैं और खुल्लम-खुल्ला शिक्षा के नाम पर सौदेबाजी कर रहे हैं। मजबूर और असहाय अभिभावक विकल्प खोजते-खोजते उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में फंस जाते हैं जिसका निजी संस्थान भरपूर लाभ उठा रहे हैं। कई तो ऐसे पूंजीपति लोग देखने में आते हैं जिनका शिक्षा से कोसों तक कोई नाता नहीं होता लेकिन उन्होंने अपने धन और ऐश्वर्य के बल पर इन विद्या मंदिरों को सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने का साधन बना डाला है। आज यह शिक्षा का व्यापारीकरण नहीं तो और क्या है?भारत का शिक्षातंत्र दुनिया का सबसे बड़ा तंत्र है। भारत में प्रथम मॉडर्न विश्वविद्यालय 1857 में स्थापित हुआ और चीन में 1895 में। आज चीन की शिक्षा स्थिति क्या है और भारत की क्या। भारत में इस वक्त आठ सौ विश्वविद्यालय एवं 43 हजार कॉलेज हैं। बावजदू इसके दुनिया के प्रथम दो सौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं। हम यूजी और पीजी में छात्रों को जो डिग्रियां बांट रहे हैं उनमें से केवल नौ फीसदी ही रोजगार पाने लायक हैं। आज भारत में 18-24 वर्ष के 14 करोड़ युवा उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन इनमें प्रवेशित मात्र 24 फीसदी ही होते हैं। भारतीय मूल्यों को प्रतिस्थापित करने के लिए आज उच्च शिक्षा में शोध की गुणवत्ता में सुधार की जरुरत है। सत्र 2017-18 में देश में 35 हजार पीएचडी हुईं। लेकिन अधिकांश में गुणवत्ता गायब है।शिक्षा का जिस तरह व्यवसायीकरण हो रहा है और इसके लिए मोटी फीस वसूली जा रही है, उसमें शिक्षा के मूल्यों की अपेक्षा करना मुश्किल है। स्किल्ड नहीं होने से 70 फीसदी स्टूडेंट आज रोजगार से वंचित हैं। छात्र-छात्राओं के साथ शिक्षकों में भी मूल्यपरकता होना जरुरी है। क्षेत्रीय उच्च शिक्षा अधिकारी डॉ.राजीव गुप्ता ने कहा कि भारत में हर वर्ष एक करोड़ छात्र स्नातक की डिग्री लेकर निकल रहे हैं।
ज्ञान का संग्रहण और उसका कुशलतम उपयोग ही शिक्षा है। अब पाठ्यक्रम में केवल सैद्धांतिक पक्ष से ही काम नहीं चलेगा बल्कि व्यवहारिक पक्ष को भी उसका हिस्सा बनना होगा।-शिक्षा के बाजारीकरण का अर्थ है शिक्षा को बाजार में बेचने-खरीदने की वस्तु में बदल देना अर्थात शिक्षा आज समाज में मात्र एक वस्तु बन कर रह गई है और स्कूलों को मुनाफे की दृष्टि से चलाने वाले दुकानदार बन चुके हैं तथा इस प्रकार की दुकानें ही छात्रों के भविष्य को बर्बाद कर रही हैं। अभिभावक भी शिक्षा की इन दुकानों की चकाचौंध को देख कर उनमें फंसते जा रहे हैं परन्तु अंत में जब तक अभिभावकों को इन दुकानों की वास्तविकता का पता चलता है तब तक वे अपना धन और समय गंवा चुके होते हैं। स्कूलों में बच्चों की गुणवत्ता की अपेक्षा बच्चों की संख्या पर विशेष ध्यान दिया जाता है जोकि सर्वथा अनुचित है। नए शैक्षिक सत्र के आरंभ में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर स्कूल प्रशासक अभिभावकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं लेकिन कुछ समय के पश्चात जब वास्तविकता सामने आती है तो वे मजबूरन कुछ नहीं कर सकते और अपने बच्चों के लिए स्कूल प्रशासन की उचित-अनुचित मांगों को पूरा करने के लिए बाध्य हो जाते हैं।आज शिक्षा की आड़ में पैसा कमाना ही मूल उद्देश्य बन कर रह गया है। महंगाई और बाजारीकरण के मौजूदा दौर में छात्र इस असमंजस में फंसा हुआ है कि वह कमाने के लिए पढ़े या पढने के लिए कमाए। बाजारीकरण की दीमक पूरी शिक्षा व्यवस्था को खोखला करती जा रही है। आज आवश्यकता है कि इस विषय में सरकार कुछ ठोस कदम उठाए तथा शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश की प्रक्रिया में अधिक से अधिक पारर्दशता लाने का प्रयास करे क्योंकि किसी भी राष्ट्र का विकास तभी संभव हो सकता है जब वहां की अधिकतम जनसंख्या शिक्षित और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो। यह वही भारत है जो अपनी संस्कृति के कारण विश्व भर में विख्यात है और जहां दूसरे देशों से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति की पहचान हमारी शिक्षा का नैतिक मूल्य स्तर दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है।आजकल शहरों में तो क्या, गांवों में भी शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। यदि आंकड़ों को देखा जाए तो सरकारी स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढने के लिए आते है, क्योंकि निजी शिक्षा संस्थाओं के फीस के रूप में बड़ी-बड़ी रकमें वसूली जाती है, जिन्हें केवल पैसे वाले ही अदा कर पाते है। आज अच्छी और उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालक मनमर्जी की फीस वसूल कर रहे है या यूँ कहें शिक्षा का बाजार लगाकर लूट मचा रखी है। जहाँ एक तरफ जितनी स्कूल की फीस बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ उतना ही शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है की इस सबके लिये कही ना कही हम सब भी जिम्मेदार हैं।
शिक्षा के ऐसे हालातों को देखते हुए सरकार को कुछ सख्त कदम उठाना चाहिये और शिक्षा का मौलिक आधार प्रत्येक बच्चे तक पहुँचाना चाहिये। हमारी सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि वो आम जनता को क्यों इस प्रकार लुटने दे रही है। इन व्यवसायिक निजी स्कूलों के स्तर की ही शिक्षा मिशनरी स्कूल (मसलन सेंट पॉल, कॉन्वेन्ट, सेंट जेवियर, सेंट रैफल, सेंट नारबर्ट आदि) भी दे रहे हैं और अपेक्षाकृत काफी कम फीस में, तो कुछ स्कूलों को ऐसा अधिकार क्यों कि वो बच्चों के भोले-भाले अभिभावकों को शिक्षा के नाम पर बेवकूफ बना कर उनसे मनमाना फीसवसूल करें। इस मनमानी को रोकने के लिए सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा का व्यवसायीकरण पर रोक लगाये। निजी शिक्षण संस्थाओं की फीस सरकार द्वारा तय की जानी चाहिए तथा इस फीस इतनी हो कि निर्धन वर्ग के बच्चे भी उन शिक्षण संस्थाना में शिक्षा ग्रहण कर सके, क्योंकि भारत देश की अधिकतर आबादी ग्रामीण आंचल में बसती है, जो निर्धन वर्ग में आती है।
शिक्षक समाज में उच्च आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व होता है। किसी भी देश या समाज के निर्माण में शिक्षा की अहम भूमिका होती है, कहा जाए तो शिक्षक समाज का आइना होता है। हिन्दू धर्म में शिक्षक के लिए कहा गया है कि आचार्य देवो भव: यानी कि शिक्षक या आचार्य ईश्वर के समान होता है। यह दर्जा एक शिक्षक को उसके द्वारा समाज में दिए गए योगदानों के बदले स्वरुप दिया जाता है। शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूज्यनीय रहा है। कोई उसे गुरु कहता है, कोई शिक्षक कहता है, कोई आचार्य कहता है, तो कोई अध्यापक या टीचर कहता है ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है। गुरु या शिक्षक का संबंध केवल विद्यार्थी को शिक्षा देने से ही नहीं होता बल्कि वह अपने विद्यार्थी को हर मोड़ पर उसको राह दिखाता है और उसका हाथ थामने के लिए हमेशा तैयार रहता है एक शिक्षक या गुरु द्वारा अपने विद्यार्थी को स्कूल में जो सिखाया जाता है या जैसा वह सीखता है, वे वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है जैसा वह अपने आसपास होता देखते हैं। इसलिए एक शिक्षक या गुरु ही अपने विद्यार्थी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
सफल जीवन के लिए शिक्षा बहुत उपयोगी है जो हमें गुरु द्वारा प्रदान की जाती है। विश्व में केवल भारत ही ऐसा देश है यहां पर शिक्षक अपने शिक्षार्थी को ज्ञान देने के साथ-साथ गुणवत्तायुक्त शिक्षा भी देते हैं,किसी भी राष्ट्र का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी है तो उस देश को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी तो वहां की प्रतिभा दब कर रह जायेगी बेशक किसी भी राष्ट्र की शिक्षा नीति बेकार हो, लेकिन एक शिक्षक बेकार शिक्षा नीति को भी अच्छी शिक्षा नीति में तब्दील कर देता है।शिक्षकों द्वारा प्रारंभ से ही पाठ्यक्रम के साथ ही साथ जीवन मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है। शिक्षा हमें ज्ञान, विनम्रता, व्यवहारकुशलता और योग्यता प्रदान करती है। शिक्षक को ईश्वर तुल्य माना जाता है। आज भी बहुत से शिक्षक शिक्षकीय आर्दशो पर चलकर एक आदर्श मानव समाज की स्थापना में अपनी महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। लेकिन इसके साथ-साथ ऐसे भी शिक्षक हैं जो शिक्षक और शिक्षा के नाम को कलंकित कर रहे हैं। और ऐसे शिक्षकों ने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है, जिससे एक निर्धन शिक्षार्थी को शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है। धन के अभाव से अपनी पढ़ाई छोड़नी पडती है। प्राचीन समय में छात्र गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। वहां गुरु छात्र को संस्कारित बनाता था लेकिन आधुनिक जीवन में लोगों के पास शायद विकल्प कम रह गए हैं और ये कोचिंग संस्थान इसी का फायदा उठाते हैं। शिक्षा को व्यवसाय बनाकर उसका बाजारीकरण किया जा रहा है। निजी कोचिंग सैंटर हर गली, मोहल्ले और सोसायटी में सभी को झूठे प्रलोभन देकर अपने जाल में फंसा रहे हैं और खुल्लम-खुल्ला शिक्षा के नाम पर सौदेबाजी कर रहे हैं। मजबूर और असहाय अभिभावक विकल्प खोजते-खोजते उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में फंस जाते हैं जिसका निजी संस्थान भरपूर लाभ उठा रहे हैं। कई तो ऐसे पूंजीपति लोग देखने में आते हैं जिनका शिक्षा से कोसों तक कोई नाता नहीं होता लेकिन उन्होंने अपने धन और ऐश्वर्य के बल पर इन विद्या मंदिरों को सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने का साधन बना डाला है। आज यह शिक्षा का व्यापारीकरण नहीं तो और क्या है?भारत का शिक्षातंत्र दुनिया का सबसे बड़ा तंत्र है। भारत में प्रथम मॉडर्न विश्वविद्यालय 1857 में स्थापित हुआ और चीन में 1895 में। आज चीन की शिक्षा स्थिति क्या है और भारत की क्या। भारत में इस वक्त आठ सौ विश्वविद्यालय एवं 43 हजार कॉलेज हैं। बावजदू इसके दुनिया के प्रथम दो सौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं। हम यूजी और पीजी में छात्रों को जो डिग्रियां बांट रहे हैं उनमें से केवल नौ फीसदी ही रोजगार पाने लायक हैं। आज भारत में 18-24 वर्ष के 14 करोड़ युवा उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन इनमें प्रवेशित मात्र 24 फीसदी ही होते हैं। भारतीय मूल्यों को प्रतिस्थापित करने के लिए आज उच्च शिक्षा में शोध की गुणवत्ता में सुधार की जरुरत है। सत्र 2017-18 में देश में 35 हजार पीएचडी हुईं। लेकिन अधिकांश में गुणवत्ता गायब है।शिक्षा का जिस तरह व्यवसायीकरण हो रहा है और इसके लिए मोटी फीस वसूली जा रही है, उसमें शिक्षा के मूल्यों की अपेक्षा करना मुश्किल है। स्किल्ड नहीं होने से 70 फीसदी स्टूडेंट आज रोजगार से वंचित हैं। छात्र-छात्राओं के साथ शिक्षकों में भी मूल्यपरकता होना जरुरी है। क्षेत्रीय उच्च शिक्षा अधिकारी डॉ.राजीव गुप्ता ने कहा कि भारत में हर वर्ष एक करोड़ छात्र स्नातक की डिग्री लेकर निकल रहे हैं।
ज्ञान का संग्रहण और उसका कुशलतम उपयोग ही शिक्षा है। अब पाठ्यक्रम में केवल सैद्धांतिक पक्ष से ही काम नहीं चलेगा बल्कि व्यवहारिक पक्ष को भी उसका हिस्सा बनना होगा।-शिक्षा के बाजारीकरण का अर्थ है शिक्षा को बाजार में बेचने-खरीदने की वस्तु में बदल देना अर्थात शिक्षा आज समाज में मात्र एक वस्तु बन कर रह गई है और स्कूलों को मुनाफे की दृष्टि से चलाने वाले दुकानदार बन चुके हैं तथा इस प्रकार की दुकानें ही छात्रों के भविष्य को बर्बाद कर रही हैं। अभिभावक भी शिक्षा की इन दुकानों की चकाचौंध को देख कर उनमें फंसते जा रहे हैं परन्तु अंत में जब तक अभिभावकों को इन दुकानों की वास्तविकता का पता चलता है तब तक वे अपना धन और समय गंवा चुके होते हैं। स्कूलों में बच्चों की गुणवत्ता की अपेक्षा बच्चों की संख्या पर विशेष ध्यान दिया जाता है जोकि सर्वथा अनुचित है। नए शैक्षिक सत्र के आरंभ में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर स्कूल प्रशासक अभिभावकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं लेकिन कुछ समय के पश्चात जब वास्तविकता सामने आती है तो वे मजबूरन कुछ नहीं कर सकते और अपने बच्चों के लिए स्कूल प्रशासन की उचित-अनुचित मांगों को पूरा करने के लिए बाध्य हो जाते हैं।आज शिक्षा की आड़ में पैसा कमाना ही मूल उद्देश्य बन कर रह गया है। महंगाई और बाजारीकरण के मौजूदा दौर में छात्र इस असमंजस में फंसा हुआ है कि वह कमाने के लिए पढ़े या पढने के लिए कमाए। बाजारीकरण की दीमक पूरी शिक्षा व्यवस्था को खोखला करती जा रही है। आज आवश्यकता है कि इस विषय में सरकार कुछ ठोस कदम उठाए तथा शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश की प्रक्रिया में अधिक से अधिक पारर्दशता लाने का प्रयास करे क्योंकि किसी भी राष्ट्र का विकास तभी संभव हो सकता है जब वहां की अधिकतम जनसंख्या शिक्षित और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो। यह वही भारत है जो अपनी संस्कृति के कारण विश्व भर में विख्यात है और जहां दूसरे देशों से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति की पहचान हमारी शिक्षा का नैतिक मूल्य स्तर दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है।आजकल शहरों में तो क्या, गांवों में भी शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। यदि आंकड़ों को देखा जाए तो सरकारी स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढने के लिए आते है, क्योंकि निजी शिक्षा संस्थाओं के फीस के रूप में बड़ी-बड़ी रकमें वसूली जाती है, जिन्हें केवल पैसे वाले ही अदा कर पाते है। आज अच्छी और उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालक मनमर्जी की फीस वसूल कर रहे है या यूँ कहें शिक्षा का बाजार लगाकर लूट मचा रखी है। जहाँ एक तरफ जितनी स्कूल की फीस बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ उतना ही शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है की इस सबके लिये कही ना कही हम सब भी जिम्मेदार हैं।
शिक्षा के ऐसे हालातों को देखते हुए सरकार को कुछ सख्त कदम उठाना चाहिये और शिक्षा का मौलिक आधार प्रत्येक बच्चे तक पहुँचाना चाहिये। हमारी सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि वो आम जनता को क्यों इस प्रकार लुटने दे रही है। इन व्यवसायिक निजी स्कूलों के स्तर की ही शिक्षा मिशनरी स्कूल (मसलन सेंट पॉल, कॉन्वेन्ट, सेंट जेवियर, सेंट रैफल, सेंट नारबर्ट आदि) भी दे रहे हैं और अपेक्षाकृत काफी कम फीस में, तो कुछ स्कूलों को ऐसा अधिकार क्यों कि वो बच्चों के भोले-भाले अभिभावकों को शिक्षा के नाम पर बेवकूफ बना कर उनसे मनमाना फीसवसूल करें। इस मनमानी को रोकने के लिए सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा का व्यवसायीकरण पर रोक लगाये। निजी शिक्षण संस्थाओं की फीस सरकार द्वारा तय की जानी चाहिए तथा इस फीस इतनी हो कि निर्धन वर्ग के बच्चे भी उन शिक्षण संस्थाना में शिक्षा ग्रहण कर सके, क्योंकि भारत देश की अधिकतर आबादी ग्रामीण आंचल में बसती है, जो निर्धन वर्ग में आती है।
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