राफेल कहें या रा.. फेल
कई राज्यों में चुनाव दस्तक देने वाले हैं। चुनावी सुग-बुगाहट चरम पर पहुँचने को है। हमारे देश के तथाकथित नौजवान नेता चुनावी मनोदशा में आ चुके हैं। एक नए बुल-बुले का फूटना तो मानो तय था, तो हो गयी घोषणा- राफेल डील में घोटाला। बुद्धिजीवियों को, मुझ जैसे पत्रकरों और छात्रों को, सबको एक नया व रोचक प्रसंग मिल गया।राफेल डील में लगाए गए धांधली के आरोपों का विश्लेषण करते वक्त; मेरा कुछ सवालों से सामना हुआ। आखिर ये नया विदेशी शब्द ‘राफेल’जिसका नाम हर समाचार विश्लेषक जप रहा है, किस बला का नाम है? राफेल डील वाकई में एक घोटाला है या मात्र बेबुनियादी विवाद? क्या सही में यह राष्ट्रीय-हित से जुड़ा सवाल है या चुनावी वर्ष में वोट बटोरने की कोशिश? बात अप्रैल 2015 से आरंभ होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय वायुसेना की‘क्रिटिकल आॅपरेशनल नेसेसिटी’ का हवाला देते हुए फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमानों की ‘फ्लाईवे कंडीशन’ में खरीद समझौते का ऐलान किया। अब राफेल पर आते हैं, राफेल एक फ्रेंच ट्विन-इंजन मल्टीरोल लड़ाकू विमान है। एयर सुप्रीमेसी, इंटरडिक्शन, एयर रिकांनासेंस, एन्टी-शिप स्ट्राइक व परमाणु हथियारों की क्षमता से लैस एक बेहतरीन लड़ाकू विमान । फिर प्रश्न आता है, राफेल ही क्यों? अमेरिका मेड एफ-16 या यूरोफाइटर टाईफून क्यों नहीं? विशेषज्ञों की मानें तो फ्रांस ही एक-मात्र ऐसा विमान उत्पादक देश है, जिसका हमारे परमाणु कार्यक्रम की ओर नरम रुख है। जंग में अगर कभी चीन या पाकिस्तान के खिलाफ राफेल से परमाणु बम दागने की जरूरत पड़ी तो फ्रांस को इससे कोई आपत्ति नहीं होगी। अब इस मुद्दे पर राजनीति की गुंजाइश नहीं बची। किन्तु क्योंकि फिलहाल, राफेल, राहुल की नई गेंद है। सो उन्हें खेलने देना चाहिए! इस गेंद को भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री की ओर निशानाकर उछालते हुए राहुल कुछ बातें भूल गए।राफेल विमान सौदे के खिलाफ कांग्रेस अब आते हैं विवादित पहलुओं पर-पहला, कांग्रेस का दावा है की यू.पी.ए. सरकार के समय यही समझौता 520.10 करोड़ रुपए प्रति विमान के हिसाब से तय होने की कगार पर था। वहीं दूसरी ओर, वर्तमान एन.डी.ए. नीत सरकार प्रति विमान 1670.70 करोड़ रुपए का भुगतान कर रही है, जो की सीधे-सीधे तीन गुना ज्यादा कीमत है 36 हजार करोड़ रुपए का आंकड़ा दिया था वह चार ट्वीट में फूलते-फूलते (राहुल गांधी के ही शब्दों में ) एक सौ तीस हजार करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है।
कांग्रेस के जिम्मेदार नेता भले इन आंकड़ों पर जानकारी देने में बगलें झांकने लगें लेकिन राहुल गांधी तो ऐसे फितूरी आंकड़ों का पहाड़ा चढ़ ही सकते हैं! दही के धोखे में कपास खा जाने जैसी हड़बड़ाहट और कच्चेपन का उदाहरण देती दूसरी बात सौदे में रिलायंस के दाखिल होने से जुड़ी है। कांग्रेस समर्थक इसे उनकी ‘अदा’ मान सकते हैं किन्तु पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति के बयान को अपनी बात पर मुहर मानकर लपकते हुए राहुल दो बातें यहां भी भूल गए।
हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) की बजाय रिलायंस के लिए इस सौदे में गुंजाइश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते और सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए ही बन गई थी। दरअसल, अप्रैल 2013 के पहले सप्ताह की बात है जब भारतीय मीडिया में यह खबर पहली बार आई कि हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) का पुराना ‘खस्ता प्रदर्शन’ भारतीय वायुसेना के लिए नए लड़ाकू राफेल विमानों की खरीद के आड़े आ रहा है। यही कारण था कि एचएएल के नाम पर दसौं एविएशन हिचकिचा रही थी। अंतत: दसौं एविएशन ने मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए, दिसंबर 2013 में ही, रिलायंस से हाथ मिला लिया था। दरअसल, राजनीति में उथलेपन के प्रतीक बने और वक्त बेवक्त बेकाबू होने वाले राजनेता से पूछने लायक सवाल यह है कि देश की सुरक्षा जरूरतों को लगातार टालने और आंतरिक खतरों को बढ़ाते जाने पर कांग्रेस और इसके कर्णधार कुनबे को कठघरे में क्यों नहीं खड़ा किया जाना चाहिए। अब देखना है कांग्रेस के हाथ में गेंद को कितने समय तक खेंलेगे, या बहरहाल, राफेल मुद्दे की पतंग वाड्रा जैसे पेड़ की लंदन तक फैली पत्तियों (या संपत्तियों) और संजय भंडारी जैसी टहनियों पर जाकर टंगेगी यह तो राहुल ने सोचा भी नहीं होगा। वैसे, उन्हें इसकी जरूरत भी नहीं है! कांग्रेस के भीतर जो सोच नहीं सकते वे राहुल-राफेल के पोस्टर चिपका रहे हैं। जो सोच सकते हैं वे रा..फेल बुदबुदा रहे हैं।