प्रेम शंकर पुरोहित |
25-30 फीसदी तक की कमी आ सकती है। करीब 250 निर्यात इकाइयां हैं जो दरी, चटाई, टेबल कवर, बेडशीट, परदा, गलीचा और कालीन आदि को अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, जापान, कनाडा, जमर्नी और मलेशिया में निर्यात करते हैं। विदेशी बाजारों में मांग में आई कमी के परिणाम स्वरूप हथकरघा इकाइयां मांग के अनुसार ही उत्पादन करेंगी। मुबारकपुर नगर व आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में हथकरघा उद्योग कभी विकास का एक सशक्त साधन हुआ करता था। पिछले लगभग 25 वर्षों से बुनकरों का हथकरघा उद्योग अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करता नजर आ रहा है।
पानीपत के कपड़ा निर्यातक अमेरिका और यूरोप के विभिन्न देशों में होम फर्निशिंग उत्पादों का निर्यात करते हैं। पानीपत के निर्यातकों ने बताया कि चूंकि विदेशी बाजारों में मांग में कमी आ रही है, इसी वजह से यहां के घरेलू वस्त्र उद्योग के निर्यात आंकड़ों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। यहां के निर्यातक यह भी आशंका जता रहे हैं कि मौजूदा वित्त वर्ष में होम फर्निशंग उत्पादों के निर्यात में 25-30 फीसदी तक की कमी आ सकती है।
करीब 250 निर्यात इकाइयां हैं जो दरी, चटाई, टेबल कवर, बेडशीट, परदा, गलीचा और कालीन आदि को अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, जापान, कनाडा, जमर्नी और मलेशिया में निर्यात करते हैं। विदेशी बाजारों में मांग में आई कमी के परिणाम स्वरूप हथकरघा इकाइयां मांग के अनुसार ही उत्पादन करेंगी। मुबारकपुर नगर व आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में हथकरघा उद्योग कभी विकास का एक सशक्त साधन हुआ करता था। पिछले लगभग 25 वर्षों से बुनकरों का हथकरघा उद्योग अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करता नजर आ रहा है। इस संघर्ष में केंद्र व प्रदेश सरकार द्वारा संचालित कल्याणकारी योजनाएं जैसे बुनकर बीमा योजना, बुनकर कलस्टर योजना, बुनकरों को डिजाईनर व लुक का प्रशिक्षण कार्यक्रम, कपड़ा मार्केटिग एवं प्रदर्शनी के माध्यम से बुनकरों को व हथकरघा उद्योग को संजीवनी देने के लिए तमाम योजनाएं बुनकर बाहुल्य क्षेत्रों में संचालित हैं। उधर बुनकरों के हालात को सुधारने के लिए इनके बच्चों को छात्रवृत्ति प्रदान करने की योजना भी चलाई जा रही है जिससे बुनकरों के सामाजिक व आर्थिक विकास को गति दी जा सके। इस प्रकार बुनकरों का हथकरघा उद्योग पिछले लगभग एक दशक से मंदी का दंश झेल रहा है। इससे काफी संख्या में बुनकरों ने दूसरे कारोबार की तरफ अपना रुख कर लिया है।। अब बिजली आपूर्ति सरकारी फरमान के मुताबिक जितनी होनी चाहिए उतना भी नहीं होती है। जबकि बिजली हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने के लिए बेहद जरूरी है। मांग के बावजूद बिजली आपूर्ति की दशा दयनीय है। हथकरघा उद्योग इस क्षेत्र के आम आदमी को रोजगार मुहैया कराने का बेहतरीन साधन था। इसी उद्योग के बल पर यहां के बुनकर खुशहाल जीवन बिताने के साथ क्षेत्र के दबे-कुचले समाज के लोगों को इस व्यवसाय से जोड़कर उनकी रोजगार की समस्या का समाधान किया करते थे लेकिन आज हालात विपरीत हो गये हैं। अब इस कार्य में जब परिवार के छह लोग मिलकर दिन भर काम करते है तो 200 रुपये का लाभ मिल पाता है। कहा कि अगर यहीं छह सदस्य बाहर काम करें तो 900 रुपये की कमाई हो जाती है। कहा कि आज तक कहीं से कोई मदद नहीं मिली है। कहते है कि इस धंधे में नई पीढ़ी काम नहीं करना चाहती। पूंजी की कमी से दो पाट की बुनाई तक ही सीमित है। जबकि एक पाट की बुनाई के अलग से सिस्टम लगाने के लिए धन की कमी है।वर्षो पहले अपनी आर्थिकी मजबूत करने के लिए जो हथकरघे स्थापित किए थे, मशीनी युग व समय की मार के चलते बंद पड़े हुए हैं करीब 1982 में उन्होंने परिवार के पालन पोषण के स्वरोजगार शुरू करते हुए लोन उठाकर हैंडलूम स्थापित कर अपने कार्य को शुरू किया था लेकिन जैसे जैसे मशीनी युग में मशीनों द्वारा ये सब काम होने लगे तो हमारा काम दिन प्रतिदिन घटता चला गया और वर्तमान समय में काम बिल्कुल ठप्प पड़ा हुआ है।
हैंडलूम लगाने के करीब 17 वर्ष तक तो काम ठीक चलता रहा जिसमें पट्टू, स्टैपल, चदरें, दरी आदि जिसमें भेड़ की उन के पटटू बनाए जाते और हमारे द्वारा तैयार की गई चीजों की काफी मांग थी और कमाई भी ठीक ठाक हो जाती थी जिसमें परिवार का लालन पालन करना आसानी से हो जाता था और हम अपनी गिनती अमीरों में करते थे परंतु वर्तमान समय में मशीनी युग की मार के चलते हम पर गरीबी छाई हुई है जिसमें हमें परिवार का भरण पोषण करना मुश्किल पड़ गया है।परिवार में 2 बच्चे और मैं और मेरी पत्नी व बच्चों का गुजारा करना भारी पड़ रहा है जिसमें बच्चों की पढ़ाई के खर्चे के साथ साथ तीन वक्त की रोटी कमाना मुश्किल पड रही है।कालीनों का सही भुगतान न मिलने से कारीगर तथा उद्यमियों के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है। निर्धारित दर से कम दामों में आकर्षक कालीन बेची जा रही है। केजीएन उद्योग समिति के संचालक एवं कालीन व्यवसायी हाजी अहसान ने बताया कि यहां की कालीन पेरिस, फ्रांस सहित अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बिकती है। वह ग्वालियर, दिल्ली, जयपुर सहित कई महानगरों में कालीन को बेचते हैं। खरीदारों द्वारा नगद भुगतान न करने से उन्हें कच्चा माल लेने में परेशानी हो रही है। इसकी वजह से कालीनों को कम दामों पर बेचना पड़ रहा है। बुनाई का पैसा नहीं मिलने से वह फुटपाथ पर दुकान लगाने लगे हैं। जहां 70 हथकरघों में काम चलता था अब केवल 40 हथकरघों में काम चल रहा है जिससे बेकारी बढ़ती जा रही है। कलीम अंसारी ने बताया कि कालीन का पूरा व्यवसाय विदेश व्यापार पर निर्भर था। केंद्र एवं प्रदेश की सरकारों द्वारा कोई संरक्षण न मिलने और नोटबंदी ने इसे ठप कर दिया है। वर्ष 1978 में कालीन की बुनकरी तथा उद्योग का काम शुरू हुआ था। इससे करीब 10 हजार लोगों की जीविका चलती थी। प्रदेश के भदोही, मिजार्पुर में कालीन उद्योग के लिए तमाम योजनाएं लागू की लेकिन यहां पर कोई योजना नहीं चलायी जा रही है। नोटबंदी के बाद इस उद्योग पर बुरा असर पड़ा है। हथकरघा बुनकरों की माली हालत काफी खराब है। हथकरघा उद्योग की शुरूआत 16वीं सदी में मानी जाती है। यहां लाखों की संख्या में बुनकर काम करते हैं। लेकिन यहां के बुनकर खाड़ी देशों में पलायन करने को मजबूर हैं। जानकारी के मुताबिक हजारों की संख्या में यहां से बुनकर खाड़ी देशों में रोजी-रोटी की जुगाड़ में जद्दोजहद कर रहे हैं। बुनकरों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई है कि वे पैसे के आभाव मे इलाज से भी वंचित हैं। मुबारकपुर में बनी साड़ी पूरे देश में बनारसी साड़ी के नाम से मशहूर है। यहां की साड़िया देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी पहचान बनाए हैं, लेकिन अगर यही हालत रहा तो आने वाले समय में ताने बाने का यह शहर अपनी पहचान जरूर खो देगा। बुनकरो का कहना है कि इस साड़ी कारोबार में हम लोगों को बहुत सारी पेरशानियां उठानी पड़ती हैं। सबसे बडी समस्या बिजली की है, जिसका कोई निर्धारित समय निश्चित नहीं है। रात में दो बजे बिजली आने पर भी उन्हें उठकर लूम चलाना पड़ता है। इस मंदी के समय में बुनकर एक पैसा भी नही बचा पा रहे है, जिसकी वजह से वे अपने बच्चों की शादी तक करने की स्थिति में नहीं है।गोरखपुर के अंधियारीबाग, रसूलपुर, डोमिनगढ़ समेत 10 किलोमीटर के दायरे में बुनकर हथकरघा की खट-खट के बीच दिन-रात एक कर परिवार की आजीविका चलाते हैं। ये लोग 16 से 18 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद बमुश्किल 300 से 400 रुपए ही कमा पाते हैं। लेकिन, उनके इस आमदनी पर भी सवालिया निशान लग गया है, क्योंकि बिजली कटौती की वजह से उनका ये कारोबार खतरे में पड़ गया है। इन बुनकरों की मानें तो दिन में बिजली न होने के चलते इन्हें रात भर मेहनत करनी पड़ती है। इतनी मेहनत के बावजूद इनके सामने सबसे बड़ी समस्या ये है कि उनके पास बाजार ही नहीं है। पहले राज्य के कई बड़े शहरों और नेपाल तक में उनके हाथ के बने सामान के लिए बड़ा बाजार मिल जाता था। वहां उनके बनाए सामान की इज्जत होती थी। लेकिन, बदलते वक्त के साथ हथकरघा उद्योग दम तोड़ने लगा है। बुनकरों का कहना है कि लोग फैशन की होड़ में अपनी विरासत को भूलते चले जा रहे हैं। बड़े उद्योगपतियों के इस बाजार में कूदने के कारण हथकरघा ने पावरलूम की शक्ल ले ली। अब बिजली से चलने वाले पावरलूम के कारण हथकरघा नाम मात्र ही रह गया। बुनकर बड़े उद्योगपतियों द्वारा लगाए गए पावरलूम पर काम करने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि हथकरघा के आगे पावरलूम से बने कपड़ों की गुणवत्ता और उत्पादन में बेहद फर्क है। विख्यात भारतीय महिला परिधान, बेहतरीन कारीगरी और नर्म नाजुक रेशम पर बनी बनारसी साड़ी पिछले पांच साल में बाजार से लगभग गायब हो गई है. इसकी जगह ले ली है गुजरात के शहर सूरत में बनने वाली नकली बनारसी साड़ी ने. सूरत में यह सिंथेटिक धागे पर तैयार होती है. यानी यह पालिएस्टर की हुई, जबकि बनारसी साड़ी बेंगलूरु और चीन से आने वाले रेशम के धागे पर तैयार की जाती है.लेकिन सूरत की साड़ी सस्ती होती है. बनारस की जो साड़ी कम से कम 500 में तैयार होती है वैसी ही साड़ी सूरत वाले 100 में तैयार कर देते हैं. हालांकि असली बनारसी साड़ी करीब 10 हजार रुपये की पड़ती है.यही वजह है कि बनारसी साड़ी के लगभग 90 फीसदी बाजार पर सूरत की नकली बनारसी साड़ी का कब्जा हो चुका है. सूरत की नकली बनारसी साड़ी की बढ़ती मांग से बनारसी बुनकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं. बड़ा बाजार, पीली कोठी, अलईपुर, मदनपुरा, लल्लापुर, बजरडिहा, कोटवा, लोता, रामनगर, सराय मोहान और आदमपुर के बुनकर मायूस है. पांच साल पहले सूरत के व्यापारी बनारसी साड़ियां खरीद ले गए और उन्होंने उसका डिजाइन नकल किया और सिंथेटिक साड़ी बनाने लगे. अब हालत यह है कि बनारस के बाजार में ही 90 फीसदी सूरत की नकली बनारसी साड़ी भरी पड़ी है. खरीदार बनारस से सूरत की बनारसी साड़ी ले जा रहे हैं.कि पिछले पांच सालों में बेंगलुरु से आने वाले रेशम के दाम 1400 रुपए किलो से 4200 रुपए हो गए. इसमें 30 फीसदी ड्यूटी है. अगर यह ड्यूटी ही माफ कर दी जाए तो 1200 रुपए किलो की बचत है. कहते हैं, हम लोग भी हैंडलूम छोड़ पॉवर लूम ले आए. लेकिन लागत कम नहीं हुई. दिन लूम चलता है । उसी दिन 100 रुपए मजदूरी मिलती है. हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है. वे कहते हैं, जबसे सूरत की साड़ी ने बाजार पकड़ा है हम लोगों को पेट के लाले पड़ गए. अब मांग ही नहीं बची तो माल बनेगा क्योंजब माल नहीं बनेगा तो हमें कहां से मिलेगा मेहनताना. पांच साल पहले रोजाना 15 से 20 हजार साड़ियां बनती थीं जबकि अब चार पांच हजार ही बन रही हैं, और तब मंहगाई भी इतनी नहीं थी तो 100 रुपए में घर चल जाता था लेकिन अब नहीं चलता।