Saturday, 17 February 2018

हथकरघा की मशीनों की आवाज बंद हो रही है

प्रेम  शंकर पुरोहित

25-30 फीसदी तक की कमी आ सकती है।  करीब 250 निर्यात इकाइयां हैं जो दरी, चटाई, टेबल कवर, बेडशीट, परदा, गलीचा और कालीन आदि को अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, जापान, कनाडा, जमर्नी और मलेशिया में निर्यात करते हैं। विदेशी बाजारों में मांग में आई कमी के परिणाम स्वरूप हथकरघा इकाइयां मांग के अनुसार ही उत्पादन करेंगी। मुबारकपुर नगर व आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में हथकरघा उद्योग कभी विकास का एक सशक्त साधन हुआ करता था। पिछले लगभग 25 वर्षों से बुनकरों का हथकरघा उद्योग अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करता नजर आ रहा है।
पानीपत के कपड़ा निर्यातक अमेरिका और यूरोप के विभिन्न देशों में होम फर्निशिंग उत्पादों का निर्यात करते हैं। पानीपत के निर्यातकों ने बताया कि चूंकि विदेशी बाजारों में मांग में कमी आ रही है, इसी वजह से यहां के घरेलू वस्त्र उद्योग के निर्यात आंकड़ों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। यहां के निर्यातक यह भी आशंका जता रहे हैं कि मौजूदा वित्त वर्ष में होम फर्निशंग उत्पादों के निर्यात में 25-30 फीसदी तक की कमी आ सकती है।
 करीब 250 निर्यात इकाइयां हैं जो दरी, चटाई, टेबल कवर, बेडशीट, परदा, गलीचा और कालीन आदि को अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, जापान, कनाडा, जमर्नी और मलेशिया में निर्यात करते हैं। विदेशी बाजारों में मांग में आई कमी के परिणाम स्वरूप हथकरघा इकाइयां मांग के अनुसार ही उत्पादन करेंगी। मुबारकपुर नगर व आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में हथकरघा उद्योग कभी विकास का एक सशक्त साधन हुआ करता था। पिछले लगभग 25 वर्षों से बुनकरों का हथकरघा उद्योग अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करता नजर आ रहा है। इस संघर्ष में केंद्र व प्रदेश सरकार द्वारा संचालित कल्याणकारी योजनाएं जैसे बुनकर बीमा योजना, बुनकर कलस्टर योजना, बुनकरों को डिजाईनर व लुक का प्रशिक्षण कार्यक्रम, कपड़ा मार्केटिग एवं प्रदर्शनी के माध्यम से बुनकरों को व हथकरघा उद्योग को संजीवनी देने के लिए तमाम योजनाएं बुनकर बाहुल्य क्षेत्रों में संचालित हैं। उधर बुनकरों के हालात को सुधारने के लिए इनके बच्चों को छात्रवृत्ति प्रदान करने की योजना भी चलाई जा रही है जिससे बुनकरों के सामाजिक व आर्थिक विकास को गति दी जा सके। इस प्रकार बुनकरों का हथकरघा उद्योग पिछले लगभग एक दशक से मंदी का दंश झेल रहा है। इससे काफी संख्या में बुनकरों ने दूसरे कारोबार की तरफ अपना रुख कर लिया है।। अब बिजली आपूर्ति सरकारी फरमान के मुताबिक जितनी होनी चाहिए उतना भी नहीं होती है। जबकि बिजली हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने के लिए बेहद जरूरी है। मांग के बावजूद बिजली आपूर्ति की दशा दयनीय है। हथकरघा उद्योग इस क्षेत्र के आम आदमी को रोजगार मुहैया कराने का बेहतरीन साधन था। इसी उद्योग के बल पर यहां के बुनकर खुशहाल जीवन बिताने के साथ क्षेत्र के दबे-कुचले समाज के लोगों को इस व्यवसाय से जोड़कर उनकी रोजगार की समस्या का समाधान किया करते थे लेकिन आज हालात विपरीत हो गये हैं। अब इस कार्य में जब परिवार के छह लोग मिलकर दिन भर काम करते है तो 200 रुपये का लाभ मिल पाता है। कहा कि अगर यहीं छह सदस्य बाहर काम करें तो 900 रुपये की कमाई हो जाती है। कहा कि आज तक कहीं से कोई मदद नहीं मिली है। कहते है कि इस धंधे में नई पीढ़ी काम नहीं करना चाहती। पूंजी की कमी से दो पाट की बुनाई तक ही सीमित है। जबकि एक पाट की बुनाई के अलग से सिस्टम लगाने के लिए धन की कमी है।वर्षो पहले अपनी आर्थिकी मजबूत करने के लिए जो हथकरघे स्थापित किए थे, मशीनी युग व समय की मार के चलते बंद पड़े हुए हैं करीब 1982 में उन्होंने परिवार के पालन पोषण के स्वरोजगार शुरू करते हुए लोन उठाकर हैंडलूम स्थापित कर अपने कार्य को शुरू किया था लेकिन जैसे जैसे मशीनी युग में मशीनों द्वारा ये सब काम होने लगे तो हमारा काम दिन प्रतिदिन घटता चला गया और वर्तमान समय में काम बिल्कुल ठप्प पड़ा हुआ है।
हैंडलूम लगाने के करीब 17 वर्ष तक तो काम ठीक चलता रहा जिसमें पट्टू, स्टैपल, चदरें, दरी आदि जिसमें भेड़ की उन के पटटू बनाए जाते और हमारे द्वारा तैयार की गई चीजों की काफी मांग थी और कमाई भी ठीक ठाक हो जाती थी जिसमें परिवार का लालन पालन करना आसानी से हो जाता था और हम अपनी गिनती अमीरों में करते थे परंतु वर्तमान समय में मशीनी युग की मार के चलते हम पर गरीबी छाई हुई है जिसमें हमें परिवार का भरण पोषण करना मुश्किल पड़ गया है।परिवार में 2 बच्चे और मैं और मेरी पत्नी व बच्चों का गुजारा करना भारी पड़ रहा है जिसमें बच्चों की पढ़ाई के खर्चे के साथ साथ तीन वक्त की रोटी कमाना मुश्किल पड रही है।कालीनों का सही भुगतान न मिलने से कारीगर तथा उद्यमियों के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है। निर्धारित दर से कम दामों में आकर्षक कालीन बेची जा रही है। केजीएन उद्योग समिति के संचालक एवं कालीन व्यवसायी हाजी अहसान ने बताया कि यहां की कालीन पेरिस, फ्रांस सहित अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बिकती है। वह ग्वालियर, दिल्ली, जयपुर सहित कई महानगरों में कालीन को बेचते हैं। खरीदारों द्वारा नगद भुगतान न करने से उन्हें कच्चा माल लेने में परेशानी हो रही है। इसकी वजह से कालीनों को कम दामों पर बेचना पड़ रहा है। बुनाई का पैसा नहीं मिलने से वह फुटपाथ पर दुकान लगाने लगे हैं। जहां 70 हथकरघों में काम चलता था अब केवल 40 हथकरघों में काम चल रहा है जिससे बेकारी बढ़ती जा रही है। कलीम अंसारी ने बताया कि कालीन का पूरा व्यवसाय विदेश व्यापार पर निर्भर था। केंद्र एवं प्रदेश की सरकारों द्वारा कोई संरक्षण न मिलने और नोटबंदी ने इसे ठप कर दिया है।  वर्ष 1978 में कालीन की बुनकरी तथा उद्योग का काम शुरू हुआ था। इससे करीब 10 हजार लोगों की जीविका चलती थी। प्रदेश के भदोही, मिजार्पुर में कालीन उद्योग के लिए तमाम योजनाएं लागू की लेकिन यहां पर कोई योजना नहीं चलायी जा रही है। नोटबंदी के बाद इस उद्योग पर बुरा असर पड़ा है। हथकरघा बुनकरों की माली हालत काफी खराब है।  हथकरघा उद्योग की शुरूआत 16वीं सदी में मानी जाती है। यहां लाखों की संख्या में बुनकर काम करते हैं। लेकिन यहां के बुनकर खाड़ी देशों में पलायन करने को मजबूर हैं। जानकारी के मुताबिक हजारों की संख्या में यहां से बुनकर खाड़ी देशों में रोजी-रोटी की जुगाड़ में जद्दोजहद कर रहे हैं।  बुनकरों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई है कि वे पैसे के आभाव मे इलाज से भी वंचित हैं। मुबारकपुर में बनी साड़ी पूरे देश में बनारसी साड़ी के नाम से मशहूर है। यहां की साड़िया देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी पहचान बनाए हैं, लेकिन अगर यही हालत रहा तो आने वाले समय में ताने बाने का यह शहर अपनी पहचान जरूर खो देगा। बुनकरो का कहना है कि इस साड़ी कारोबार में हम लोगों को बहुत सारी पेरशानियां उठानी पड़ती हैं। सबसे बडी समस्या बिजली की है, जिसका कोई निर्धारित समय निश्चित नहीं है। रात में दो बजे बिजली आने पर भी उन्हें उठकर लूम चलाना पड़ता है। इस मंदी के समय में बुनकर एक पैसा भी नही बचा पा रहे है,  जिसकी वजह से वे अपने बच्चों की शादी तक करने की स्थिति में नहीं है।गोरखपुर के अंधियारीबाग, रसूलपुर, डोमिनगढ़ समेत 10 किलोमीटर के दायरे में बुनकर हथकरघा की खट-खट के बीच दिन-रात एक कर परिवार की आजीविका चलाते हैं। ये लोग 16 से 18 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद बमुश्किल 300 से 400 रुपए ही कमा पाते हैं। लेकिन, उनके इस आमदनी पर भी सवालिया निशान लग गया है, क्योंकि बिजली कटौती की वजह से उनका ये कारोबार खतरे में पड़ गया है। इन बुनकरों की मानें तो दिन में बिजली न होने के चलते इन्हें रात भर मेहनत करनी पड़ती है। इतनी मेहनत के बावजूद इनके सामने सबसे बड़ी समस्या ये है कि उनके पास बाजार ही नहीं है। पहले राज्य के कई बड़े शहरों और नेपाल तक में उनके हाथ के बने सामान के लिए बड़ा बाजार मिल जाता था। वहां उनके बनाए सामान की इज्जत होती थी। लेकिन, बदलते वक्त के साथ हथकरघा उद्योग दम तोड़ने लगा है। बुनकरों का कहना है कि लोग फैशन की होड़ में अपनी विरासत को भूलते चले जा रहे हैं। बड़े उद्योगपतियों के इस बाजार में कूदने के कारण हथकरघा ने पावरलूम की शक्ल ले ली। अब बिजली से चलने वाले पावरलूम के कारण हथकरघा नाम मात्र ही रह गया। बुनकर बड़े उद्योगपतियों द्वारा लगाए गए पावरलूम पर काम करने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि हथकरघा के आगे पावरलूम से बने कपड़ों की गुणवत्ता और उत्पादन में बेहद फर्क है। विख्यात भारतीय महिला परिधान, बेहतरीन कारीगरी और नर्म नाजुक रेशम पर बनी बनारसी साड़ी पिछले पांच साल में बाजार से लगभग गायब हो गई है. इसकी जगह ले ली है गुजरात के शहर सूरत में बनने वाली नकली बनारसी साड़ी ने. सूरत में यह सिंथेटिक धागे पर तैयार होती है. यानी यह पालिएस्टर की हुई, जबकि बनारसी साड़ी बेंगलूरु और चीन से आने वाले रेशम के धागे पर तैयार की जाती है.लेकिन सूरत की साड़ी सस्ती होती है. बनारस की जो साड़ी कम से कम 500 में तैयार होती है वैसी ही साड़ी सूरत वाले 100 में तैयार कर देते हैं. हालांकि असली बनारसी साड़ी करीब 10 हजार रुपये की पड़ती है.यही वजह है कि बनारसी साड़ी के लगभग 90 फीसदी बाजार पर सूरत की नकली बनारसी साड़ी का कब्जा हो चुका है. सूरत की नकली बनारसी साड़ी की बढ़ती मांग से बनारसी बुनकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं. बड़ा बाजार, पीली कोठी, अलईपुर, मदनपुरा, लल्लापुर, बजरडिहा, कोटवा, लोता, रामनगर, सराय मोहान और आदमपुर के बुनकर मायूस है. पांच साल पहले सूरत के व्यापारी बनारसी साड़ियां खरीद ले गए और उन्होंने उसका डिजाइन नकल किया और सिंथेटिक साड़ी बनाने लगे. अब हालत यह है कि बनारस के बाजार में ही 90 फीसदी सूरत की नकली बनारसी साड़ी भरी पड़ी है. खरीदार बनारस से सूरत की बनारसी साड़ी ले जा रहे हैं.कि पिछले पांच सालों में बेंगलुरु से आने वाले रेशम के दाम 1400 रुपए किलो से 4200 रुपए हो गए. इसमें 30 फीसदी ड्यूटी है. अगर यह ड्यूटी ही माफ कर दी जाए तो 1200 रुपए किलो की बचत है. कहते हैं, हम लोग भी हैंडलूम छोड़ पॉवर लूम ले आए. लेकिन लागत कम नहीं हुई. दिन लूम चलता है । उसी दिन 100 रुपए मजदूरी मिलती है. हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है. वे कहते हैं, जबसे सूरत की साड़ी ने बाजार पकड़ा है हम लोगों को पेट के लाले पड़ गए. अब मांग ही नहीं बची तो माल बनेगा क्योंजब माल नहीं बनेगा तो हमें कहां से मिलेगा मेहनताना. पांच साल पहले रोजाना 15 से 20 हजार साड़ियां बनती थीं जबकि अब चार पांच हजार ही बन रही हैं, और तब मंहगाई भी इतनी नहीं थी तो 100 रुपए में घर चल जाता था लेकिन अब नहीं चलता।

कैसे रुकेगी भोजन की बबार्दी


खाने की बबार्दी रोकने की दिशा में महिलाएं बहुत कुछ कर सकती हैं। खासकर बच्चों में शुरू से यह आदत डालनी होगी कि उतना ही थाली में परोसें, जितनी भूख हो। एक-दूसरे से बांट कर खाना भी भोजन की बबार्दी को बड़ी हद तक रोक सकता है। भोजन और खाद्यान्न की बबार्दी रोकने के लिए हमें अपने दर्शन और परम्पराओं के पुर्नचिंतन की जरूरत है। हमें अपनी आदतों को सुधारने की जरूरत है। धर्मगुरुओं एवं स्वयंसेवी संगङ्गनों को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए। इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अभियान सोचें, खाएं और बचाएं भी एक अच्छी पहल है, जिसमें शामिल होकर की भोजन की बबार्दी रोकी जा सकती है। हम सभी को मिलकर इसके लिये सामाजिक चेतना लानी होगी तभी भोजन की बबार्दी रोकी जा सकती है।

भारत भले ही मंगल पर उपस्थिति दर्ज करा चुका हो, लेकिन यह भी सच है कि देश में १९ करोड़ लोगों को दो वक्त का भोजन नहीं मिल पाता। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में रहते हैं फिर भी देश में हर साल ४४ हजार करोड़ रुपये का खाना बर्बाद होता है।   भारतीय संस्कृति में अन्न को देवता का दर्जा प्राप्त है और यही कारण है कि भोजन जूङ्गा छोड़ना या उसका अनादर करना पाप माना जाता है। मगर आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम अपना यह संस्कार भूल गए हैं। होटल-रेस्तरां के साथ ही शादी-ब्याह जैसे आयोजनों में सैकड़ों टन खाना रोज बर्बाद हो रहा है। भारत ही नहीं, समूची दुनिया का यही हाल है। एक तरफ करोड़ों लोग दाने-दाने को मोहताज हैं, कुपोषण के शिकार हैं, वहीं रोज लाखों टन खाना बर्बाद किया जा रहा है। दुनिया भर में हर वर्ष जितना भोजन तैयार होता है उसका एक तिहाई यानी लगभग १ अरब ३० करोड़ टन बर्बाद चला जाता है। बर्बाद जाने वाला भोजन इतना होता है कि उससे दो अरब लोगों की खाने की जरूरत पूरी हो सकती है। विश्व खाद्य संगङ्गन की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया का हर सातवां व्यक्ति भूखा सोता है। अगर इस बबार्दी को रोका जा सके तो कई लोगों का पेट भरा जा सकता है। विश्व भूख सूचकांक में भारत का ६७वां स्थान है। देश में हर साल २५.१ करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन हर चौथा भारतीय भूखा सोता है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल २३ करोड़ टन दाल, १२ करोड़ टन फल और २१ करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं। विश्व खाद्य संगङ्गन के मुताबिक भारत में हर साल पचास हजार करोड़ रुपए का भोजन बर्बाद चला जाता है, जो कि देश के खाद्य उत्पादन का चालीस फीसद है। एक आकलन के मुताबिक अपव्यय के बराबर की धनराशि से पांच करोड़ बच्चों की जिंदगी संवारी जा सकती है। चालीस लाख लोगों को गरीबी के चंगुल से मुक्त किया जा सकता है और पांच करोड़ लोगों को आहार सुरक्षा की गारंटी दी जा सकती है। भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के दस लाख बच्चों के भूख या कुपोषण से मरने के आंकड़े संयुक्त राष्ट्र ने जारी किए हैं।   यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक खाने की बबार्दी में अमेरिका सबसे आगे है। अमेरिका में हर साल एक व्यक्ति औसतन ७६० किलो खाना बर्बाद करता है, जबकि यूरोप में भोजन की बबार्दी का यह आंकड़ा ६० से ११० किलो है। खाना बर्बाद करने में दूसरे स्थान पर ऑस्ट्रेलिया और तीसरे नंबर पर डेनमार्क है। इसके बाद स्विट्जरलैंड और कनाडा का नंबर आता है। यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ४० फीसदी खाना बर्बाद हो जाता है।

ऐसा कानून पाकिस्तान में कई साल से है; और वहां इसकी पहल सुप्रीम कोर्ट ने की थी। पाकिस्तान में इस कानून पर सख्ती से अमल भी हो रहा है। अब जरा हमारे यहां के हालात पर गौर कीजिए। एक सर्वे के अनुसार, अकेले बेंगलुरु शहर में हर साल शादियों में ९४३ टन पका हुआ खाना बर्बाद होता है। इतने खाने से लगभग २.६ करोड़ लोगों को एक समय का सामान्य भारतीय खाना खिलाया जा सकता है। पाकिस्तान में कानून है कि शादी या अन्य समारोहों में एक से ज्यादा मुख्य व्यंजन नहीं परोसा जा सकता। यह सुप्रीम कोर्ट ने बता दिया है कि एक करी, चावल, नान या रोटी, सलाद और दही या रायता से ज्यादा परोसना गैर-कानूनी है। विभिन्न राज्यों में पारित कानून में रात में दस बजे के बाद विवाह समारोह पर पाबंदी, घर के बाहर, पार्क या गली में बिजली के बल्बों की सजावट व आतिशबाजी के साथ-साथ दहेज की नुमाइश पर भी सख्त पाबंदी है। इस कानून के उल्लघंन पर एक महीने की सजा और ५० हजार से दो लाख रुपये तक के जुमार्ने का प्रावधान है। शुरूआत में वहां के जमींदार वर्ग ने इसका विरोध किया, कुछ लोग अदालत भी गए, मगर सुप्रीम कोर्ट ने कोई ढील देने से इनकार कर दिया। दूसरी तरफ, आम लोगों ने इस कानून का खुलकर स्वागत किया है। वहां प्रशासन ने इस कानून को लागू कराने का जिम्मा बारात घरों, बैंक्वेट हॉल, फार्म हाउस आदि पर डाल रखा है। यदि कहीं कानून टूटता पाया गया, तो इनके मालिकों पर पहले कार्रवाई होती है।  बहरहाल, भोजन की बबार्दी का रुकना न केवल हमारे देश के भूखे लोगों के लिए, बल्कि हमारे संसाधनों के लिए भी एक वरदान होगा। आखिर हम जितना अन्न बर्बाद करते हैं, उतना ही जल भी बर्बाद होता है, और उतनी ही जमीन की उर्वरा क्षमता भी प्रभावित होती है। यदि ऐसा भी कोई सर्वे भारत में अन्न की बबार्दी के संबंध में किया जाए तो बहुत संभव है कि आंकड़ा उतना ही शर्मसार करने वाला आएगा जितना आंकड़ा भुखमरी को लेकर उजागर हुआ है। भारत में अन्न की बबार्दी उसके रखरखाव में लापरवाही और कुप्रबंधन से तो होती ही है शादी एवं दूसरे उत्सवों पर दी जाने वाली पाटिNयों में भी अन्न कम बर्बाद नहीं होता। इस बबार्दी को देखकर कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति यह सोच सकता है कि क्या ये पाटिNयां अन्न को बर्बाद करने के लिए ही दी जाती हैं?अन्न की बबार्दी का एक बड़ा कारण शादी-विवाह आदि के मौके पर बनने वाले भोजन से भी जुड़ा है। भारत की संस्कृति में यूं तो अन्न को ब्रह्म का दर्जा दिया गया है इसलिए थाली में झूङ्गा छोड़ना भी अन्नपूर्णा का अपमान माना जाता है पर विडम्बना यह है कि शादी ब्याह या अन्य सामाजिक उत्सवों तथा होटलों, रेस्टोरेंट में तैयार किया गया भोजन का लगभग २० फीसदी हिस्सा कूड़ें में चला जाता है।  यह केवल एक शहर का आंकड़ा है जबकि हमारे देश में २९ राज्य हैं।गौरतलब है कि दुनिया भर में जितना भोजन बनता है उसका एक तिहाई यानि एक अरब ३० करोड़ टन भोजन बर्बाद चला जाता है। एक सरकारी अध्ययन की मानें तो ब्रिटेन के कुल उत्पादन के बराबर भारत में अनाज बर्बाद हो रहा है। यानी लगभग ९२ हजार करोड़ रु. का खाद्य पदार्थ हर साल बर्बाद हो जाता है। खाद्य पदार्थों की जितनी बबार्दी हमारे देश में हो रही है उससे पूरे बिहार की आबादी को एक साल खिलाया जा सकता है। भारत सरकार के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ  पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नालॉजी के मुताबिक उचित भंडारण की कमी ने भी देश में खाद्यान्न की बबार्दी को बढ़ाया है। भारत में ४० फीसदी अनाज खेतों से घरों तक पहुंचता ही नहीं है। कभी खेतों से मंडी के रास्ते तो कभी मंडियों में वह सड़ जाता है। समस्या यह है कि अनाज और अन्य खाद्य सामग्री को संभाल कर रखने के लिए सही मूलभूत ढांचा नहीं है। सही भंडारण के अभाव में प्याज, सब्जियों और दालों की बबार्दी ज्यादा हो रही है। अगर सर्वे की मानें तो १० लाख टन प्याज और २२ लाख टन टमाटर  प्रति वर्षा खेत से बाजार पहुंचते-पहुंचते रास्ते में बर्बाद हो जाते हैं। अगर यही खाद्य सामग्री लोगों तक पहुंच जाए तो देश में निश्चित तौर पर भुखमरी कम होगी ।


एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक चीन और भारत हर साल १.३ अरब टन खाद्यान्न की बबार्दी करते हैं। अगर भंडारण की उचित व्यवस्था हो तो किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिल सकता है। खाद्य वस्तुओं की बबार्दी का सीधा असर किसानों पर पड़ रहा है। देश के कई राज्यों में किसान नुकसान के चलते आत्महत्या करने को बाध्य हो रहे हैं। महाराष्टढ्ढ, गुजरात, पंजाब जैसे राज्यों से किसानों की आत्महत्या की खबरें अक्सर आती रहती हैं। इस साल किसानों ने आलू-प्याज की फसल का बंपर उत्पादन किया। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इस कदर प्याज का उत्पादन हुआ कि किसान उसे मुफ्त में बांटने को मजबूर हो गए तथा प्याज सड़कों पर फेंक दिए गए ।

अन्न की बबार्दी पर स्लोगन्र


१. अन्न की बबार्दी सबसे बड़ा पाप हैं जीवन में, इसलिए जीतनी हो भूख उतनाही भोजन थाली में।
२. अन्न ही है परब्रह्म, और अन्न ही है जीवन।
३. अन्न की बबार्दी ना करे, बचें हुए भोजन का सदुपयोग करें।
४. प्रोग्राम में होती है अन्न की बबार्दी, जरा सोचें कितनी होती है नुकसानी।
५. आओं, हम सब मिलकर अपने देश में एक ऐसा नियम लाएँ, बचा हुआ अच्छा भोजन जरूरतमंद तक पहुँचाएँ।
६. हम पर कभी भोजन फेकनें की नौबत ना आये, इसलिए कार्यक्रमों में भोजन जरुरत के अनुसार ही बनायें।
७. खाना फेकने के कारण, नुक्सान हो जाये। जहाँ फेके वहाँ फैले अस्वच्छता, और स्वच्छता में बाधा आये।
८. अच्छे दाम नहीं मिलने पर, किसान सब्जी फेके जाए। अगर बाटे लोगों में, तो उनकीं दुआ पाए।
९. अन्न की बबार्दी को रोको, बात हमारी जानों।
१०. खाने के बबार्दी की चिंता से क्यों है सब अनजान ?
दुनियाँ में एक-तिहाई खाने का होता है नुक्सान।
होटलों में भी हम देखते हैं कि काफी मात्रा में भोजन जूङ्गन के रूप में छोड़ा जाता है। एक-एक शादी में ३००-३०० आइटम परोसे जाते हैं, खाने वाले व्यक्ति के पेट की एक सीमा होती है, लेकिन हर तरह के नये-नये पकवान एवं व्यंजन चख लेने की चाह में खाने की बबार्दी ही देखने को मिलती हैं, इस भोजन की बबार्दी के लिये न केवल सरकार बल्कि सामाजिक संगङ्गन भी चिंतित है। लेकिन तथाकथित धनाढ्य मानसिकता के लोग अपनी परम्परा एवं संस्कृति को भूलकर यह पाप किये जा रहे हैं। सब अपना बना रहे हैं, सबका कुछ नहीं। और उन्माद की इस प्रक्रिया में खाद्यान्न संकट, भोजन की बबार्दी एवं भोजन की लूटपाट जैसी खबरें आती हैं जो हमारी सरकार एवं संस्कृति पर बदनुमा दाग हैंहोटल-रेस्तरां के साथ ही शादी-ब्याह जैसे आयोजनों में सैकड़ों टन भोजन बर्बाद हो रहा है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से ग्यारह किलो अन्न बर्बाद करता है। जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं, उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी-अनाज को सड़ने से बचा सकते हैं। इसलिये सरकार को चाहिए कि वह इन विषयों को गंभीरता से ले, नयी योजनाओं को आकार दे, लोगों की सोच को बदले, तभी नया भारत का लक्ष्य प्राप्त हो सकेगा।
खाने की बबार्दी रोकने की दिशा में ह्यनिज पर शासन, फिर अनुशासनह्ण एवं ह्यसंयम ही जीवन हैह्ण जैसे उद्घोष को जीवनशैली से जोड़ना होगा।


इन दिनों मारवाड़ी समाज में फिजुलखर्ची, वैभव प्रदर्शन एवं दिखावे की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने एवं भोजन के आइटमों को सीमित करने के लिये आन्दोलन चल रहे हैं, जिनका भोजन की बबार्दी को रोकने में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। सरकार को भी शादियों में मेहमानों की संख्या के साथ ही परोसे जाने वाले व्यंजनों की संख्या सीमित करने पर विचार करना चाहिए। दिखावा, प्रदर्शन और फिजूलखर्च पर प्रतिबंध की दृष्टि से विवाह समारोह अधिनियम, २००६ हमारे यहां बना हुआ है, लेकिन यह सख्ती से लागू नहीं होता, जिसे सख्ती से लागू करने की जरूरत है। धर्मगुरुओं व स्वयंसेवी संगङ्गनों को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए। घर की महिलाएं इसमें सहयोगी हो सकती है। खासकर वे बच्चों में शुरू से यह आदत डाले कि उतना ही थाली में परोसें, जितनी भूख हो। इस बदलाव की प्रक्रिया में धर्म, दर्शन, विचार एवं परम्परा का भी योगदान एक नये परिवेश को निर्मित कर सकता है। 


प्रस्तुति: प्रेमशंकर पुरोहित

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