Tuesday, 22 May 2018

शिक्षा बचपन को निगल रही है।

प्रेमशंकर पुरोहित

आज की शिक्षा बचपन को निगल रही है। वर्तमान सन्दर्भ में यह पूर्णत: सत्य है। शिक्षा आजकल किताबों को रटकर पुरे-पुरे अंक लाने का पर्याय हो गयी है। इस दौड़ ने बच्चों के जीवन को किताबों के बोझ तले दबा कर उनके बचपन को दफन कर दिया है। रही सही कसार तथाकथित उच्च-स्तरीय कोचिंग सेंटरों ने कर दी है। बच्चे विद्यालय से आते ही कोचिंग के लिए चले जाते हैं और फिर देर शाम को घर वापिस आते हैं. ना तो उनके पास खेलने का समय रहता है और ना ही किसी मनोरंजन या शौक के लिए।  बच्चे पढाई के बोझ तले ऐसे दब गए है की उन्हें साँस लेने तक की फुरसत नहीं होती है । आये दिन क्लास टेस्ट, हर-हर महीने में परीक्षा और उसके ऊपर तरह-तरह की और परीक्षाएं जैसे ओलिंपियाड, और ज्याने क्या-क्या। फिर ये कम हो तो पाठशाला से प्रोजेक्ट भी आ जाते है  जिसमे बच्चें और माता-पिता को भी इसमें सहियोग करना पडता है खेल कूद की बात करें तो उसमे भी बच्चों को खुल के खेलने का मौका नहीं मिलता। सभी माता पिता को अपने बच्चे में सचिन तेंदुलकर, साइना नेहवाल, मेस्सी  माइकल जैक्सन , जैसे बड़े बड़े खिलाडी ही दिखते है, इसलिए स्कूल के बाद इन खेलों की कोचिंग के लिए बच्चे और घरवाले भागते दिखाई देते है । आज की शिक्षा प्रणाली गहरा दोष पूर्ण है। जिस तरह से छात्रों को उनके सीखने और जीवन के हर पहलू के बारे में सोचने और नियंत्रित करने के लिए शिक्षा प्रणाली का प्रयास अच्छे से अधिक नुकसान पहुंचा रहा है आज स्कूल शिक्षा के सही फोकस से दूर गिर रहे हैं ,आज के शिक्षा के एजेंडे का उप-उत्पाद छात्रों में स्वास्थ्य समस्या है।
 अत्यधिक दबाव, नींद की कमी, और काम के ढेर बच्चों में दरार करने के लिए पैदा कर रहे हैं कोई छात्र सफल नहीं हो सकता है यदि वह स्वस्थ नहीं है। स्वस्थ, परिवार और दोस्तों के लिए, और अतिरिक्त गतिविधियों की शिक्षा के अलावा मूल्यवान होना चाहिए, लेकिन स्कूल इन बातों के लिए छात्रों को समय नहीं दे रहे हैं।  पहले तीसरी क्लास तक बच्चों को सिर्फ एक बुक होती थी एवं लकडी की तख्ती पर खडी व कलम से लिखते थे उससे अक्षर व लिखाई बहुत ही सुन्दर होती थी। लेकिन अब तीन साल की उम्र पर किताबों का पुलिंदा लाद दिया जाता है। क्या बच्चे को  खोलने का अवसर दिया।  दिया एक कम्टीशन, जो पडोस के बच्चें से अच्छे नम्बर लान एवं आगे निकलना है।   हम अपने बच्चे को पड़ोसी के बच्चे से थोड़ा बेहतर बनाना चाहते हैं। एक तीन साल का बच्चा अगर कहता है,मैं डॉक्टर बनना चाहता हं ू , तो हर कोई अपने बच्चे से कहेगा,अरे, पड़ोसी का बच्चा डॉक्टर बनना चाहता है।  यह अपने आप में एक गंभीर समस्या है। तुम क्या बनना चाहते हो? यदि आप का बच्चे से  पूछा जाता है वह कहता है मुझे नहीं पता।  अरे कुछ तो बताओ यह शिक्षा व्यवस्था की बीमारी नहीं है, यह बीमारी समाज में पैठ गई है। हमारी शिक्षा व्यवस्था तो तो बस उसी हिसाब से चलने की कोशिश कर रही है।बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब हम तनाव से मुक्त होकर मस्ती से जीते हैं। नन्हें गुलाबी होंठों पर बिखरती फूलों सी हंसी, मुस्कुराहट। बच्चों की शरारत, रूठना, जिद करना, अड़ जाना ही बचपन है, लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर हमें बताना चाहिए कि क्या हमारे बच्चों को ऐसा वातावरण मिल रहा है? क्या यह सत्य नहीं कि उनका बचपन तनाव की काली छाया से कलुषित हो रहा है? क्या आप इस बात से इंकार कर सकते हैं कि हर सुबह स्कूल जाने से बचने के लिए वे पेट दर्द से लेकर सिरदर्द तक के अनेक बहाने नहीं बनाते हैं और क्या वे मुस्कुराते हुए भारी बस्ता टांगे खचाखच भरी स्कूल बस पर सवार होते हैं? क्या उनके नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव नहीं होता? स्कूल के बाद ट्यूशन, होमवर्क, ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट जो उन बच्चों से तो क्या उनके मां-बाप से भी न बनें और न जाने क्या-क्या? इस पर भी हम सामान्य बच्चों को अपेक्षाकृत अधिक चिड़चिड़ा, गुस्सैल प्रवृत्ति को उन्हें कोल्डड्रिंक, पिज्जा, बर्गर, पास्ता, चाउमिन खिलाकर शांत करने की भूल करते है,ं लेकिन भारी बस्ते के बोझ तले कराहते उसके बचपन की दूसरों से तुलना कर उसे हीन बताने का अपराध भी करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि केवल प्राथमिक कक्षाओं का ही नहीं बल्कि माध्यमिक स्तर के छात्रों का बस्ता काफी भारी है माध्यमिक कक्षाओं के बाद उच्च शिक्षा में प्रवेश की तैयारी के नाम पर देश भर में फैल रहे कोचिंग संस्थान लाखों की फीस लेकर बोझ को बस्ते में मन-मस्तिष्क तक पहुंचाने में अपना योगदान कर रहे हैं। वैसे यह समस्या केवल भारत की नहीं है, दुनियां के अनेक देशों ने बस्ते का बोझ कम करने में सफलता भी प्राप्त की है, लेकिन इसके तरीके निकाले गए हैं। वहां बच्चे की रुचि और प्रतिभा के अनुसार विषय में आगे बढ़ाया जाता है।
अनावश्यक बोझ का कोई प्रश्न ही नहीं होता। हमारे यहां बड़ी-बड़ी बातें तो हुई लेकिन समय के साथ शिक्षा में जो गुणात्मक सुधार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। किताबी कीड़ा बनकर अथवा रट्टा लगाकर ज्ञान प्राप्त करने की गलत परम्परा के स्थान पर व्यावहारिक ज्ञान देकर बस्ते का बोझ कम किया जा सकता है। नयी शिक्षा नीति के प्रारूप में भी इसपर बहुत ध्यान नहीं दिया गया, अत: बहुत आशा करना व्यर्थ है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसा हो ही नहीं सकता।

Friday, 18 May 2018

लोगों के जंगलों में प्रवेश करने से बाघ, तेंदुए कर रहे मानव पर हमला

  जानवरों के हमले का मुख्य कारण सिकुडता जंगल फैसले गांव की आवादी, पानी -भोजन की तलाश के लिए अवैध कारणों के कारण जंगल खत्म की कतार में है भोजन की तलाश में वे गांवों की रुख करते आ रहे है। आश्चर्यजनक तरीके से, बाघ वनक्षेत्र या अपने जंगल के किनारों, खासकर गन्ने के खेत में जहां बाघ प्राय: रहने लगे हैं,  लोगों पर हमला करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, अधिकतर हमले दिन में होते हैं, जिसमें बताया गया है सात से 70 वर्ष की आयु के लोगों पर हुए हमले दुर्घटनावश आमने-सामने आ जाने की वजह से होते हैं रिपोर्ट के अनुसार, क्षेत्र में मानव-वन्यजीव संघर्ष के मामले में, वर्ष 2006 और 2012 के बीच 90.1 प्रतिशत मामले तेंदुए और बाघों के हैं। अन्य 9.9 प्रतिशत संघर्ष के मामले भालू, हाथी और मगरमच्छ द्वारा हुए हैं। हालांकि 50 प्रतिशत तेंदुए बच्चों और छोटे पशुओं जैसे भेड़, बकरी पर हमला करते हैं, जबकि बाघ बड़े जंतुओं जैसे भैंसों, घोड़ों और गायों पर हमला करते हैं। बाघों के मामलों में, अधिकतर लोग लकड़ी इकट्ठा करने जंगल जाते हैं और तभी संघर्ष होता है। ऐसे भी कई मामले हैं जहां बाघों ने मानवों के आवास में प्रवेश कर मानवों की हत्या की है, लेकिन यह काफी कम है रिपोर्ट के अनुसार, बाघों द्वारा 87 प्रतिशत हमले जंगलों, इसके आस-पास और गन्ने के खेतों में किए गए हैं, जबकि 13 प्रतिशत हमले गांवों और घरों के पास किए गए। बाघों की तुलना में तेंदुओं ने जंगलों और इसके आस-पास केवल 7.94 प्रतिशत हमले किए।  तेंदुओं ने इस दौरान 92.1 प्रतिशत हमले गांव या इसके आस-पास किए। इनमें से तेंदुओं ने 47.6 प्रतिशत हमले लोगों के घरों या घरों के आस-पास किए। तेंदुओं ने वहीं 15.87 प्रतिशत हमले गांव के अंदर किए, वहीं कृषि भूमि क्षेत्र में 28 प्रतिशत हमले किए। रिपोर्ट के अनुसार, 2000 से 2013 के बीच बाघों के हमले में कम से कम 49 लोग मारे गए और 24 घायल हुए। वहीं तेंदुओं के हमले में 14 लोग मारे गए और 49 घायल हुए।उत्तर प्रदेश को छोड़कर पूरे भारत में 2015-16 के दौरान 32 लोग मारे गए और 2016-17 में 13 लोगों की मौत हुई।

तेंदुओं ने अब निकटवर्ती ग्रामसभाओं के कुत्तों, गायों, बैलों, बकरियों को मारने के बाद अब मनुष्यों पर भी हमला शुरू कर दिया है। मगर इस संघर्ष को रोकने, जंगलों को बचाने की बात छोड़ वन विभाग मुआवजे की बात कर मूल समस्या से आँखें फेर रहा है।
पूरे देश में ऐसी घटनाएं रुकने की बजाए बढ़ती जा रही हैं, ऐसे में सवाल पूछा जाना चाहिए कि जानवर इसानों की बस्ती में घुस रहे हैं या इंसान जानवरों के क्षेत्र को कब्जा रहे हैं?वास्तव में मानवीय हस्तक्षेप और दोहन के कारण न सिर्फ वन क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं, बल्कि वन्य जीवों के शांत जीवन में मानवीय खलल में भी सीमा से अधिक वृद्धि हुई है। घास के मैदान कम होने से वे जीव भी कम हुए हैं, जो मांसाहारी जंगली जानवरों का भोजन होते हैं। जिसके बाद मानव और वन्यजीव संघर्ष की लखनऊ जैसी वीभत्स तस्वीरें सामने आती हैं। दुनियाभर में जंगली जानवरों के हमलों में हर साल सैकड़ों लोग अपनी जान गंवाते हैं तो बड़ी संख्या में लोग घायल भी होते हैं। मानव और वन्य जीवों का यह संघर्ष अब राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय फलक पर भी चिंता का विषय बनता जा रहा है। भारत में सबसे ज्यादा खराब हालात उत्तराखंड, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में हैं। भारत में हाथी और बाघ जैसे जानवर औसतन हर रोज एक व्यक्ति को मार रहे हैं। लेकिन इसके उलट इंसान भी रोजाना औसतन एक तेंदुए को मार रहे हैं। पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक, अप्रैल-2014 से इस साल मई महीने के 1,143 दिनों में 1,144 लोग जंगली जानवरों के हमले में जान गंवा चुके हैं। यह ट्रेंड लगातार जारी है और इसके कम होने के आसार नहीं दिख रहे।आंकड़ों के मुताबिक, इसी अवधि में देशभर में 345 बाघ और 84 हाथी मारे गए। हालांकि इनमें से ज्यादातर जानवर शिकारियों के हाथों मारे गए। हाथियों को उनके दांतों के लिए निशाना बनाया गया। इंसानों की जो मौतें हुईं उनमें से 1,052 लोगों की मौत के लिए हाथी जिम्मेदार थे, जबकि 92 लोगों ने बाघ का शिकार बनकर जान गंवाई। इस अवधि में हाथियों और बाघों के हमले में सबसे ज्यादा इंसानों की मौत पश्चिम बंगाल में हुई। कुल मौतों में से एक तिहाई लोगों की जान अकेले इसी राज्य में गई। राज्य में हाथियों की कुल तादाद 800 के करीब है। दूसरे राज्यों में भी ऐसी काफी घटनाएं हो रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, साल-2015 में करीब 950 लोग जानवरों के हमले में मारे गए हालांकि इनमें घटनाओं की तादाद नहीं बताई गई है।देश का कोई भी कोना हो जीव-जंतुओं का पूरा आहार चक्र ही बाधित हो गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि घास प्रबन्ध अर्थात शाकाहारी जानवरों के लिए भोजन प्रबन्ध बिगड़ गया है। जब इनका भोजन अर्थात चारा जंगलों में नहीं होगा तो ये शहर-गांवों की तरफ क्यों नहीं आएंगे?
बाघ, तेंदुआ आदि जंगल छोड़कर आबादी की तरफ आने लगें तो इसे उनके संघर्ष की इंतहा ही कहना चाहिए। एक रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में करीब साढे तीन लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के सर्वे के आधार पर 14 हजार तेंदुए हैं। इनके स्वभाव में होता है कि ये घने जंगलों में रहने वाले बाघ से टक्कर नहीं लेता।पिछले 6 सालों में 257 लोगों की मौत जंगली जानवरों के हमलों की वजह से हुई है, जबकि 1,486 लोग जख्मी हुए हैं। सिर्फ उत्तराखंड में बात करें तो राज्य बनने से लेकर अब तक के 17 सालों में विभिन्न कारणों से 357 हाथी, 128 बाघ और 957 गुलदार मारे गए हैं।


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