देश में गौरैया की संख्या लगातर कम हो रही है। यह हमारे लिए बेहतर संकेत नहीं हैं। बढ़ता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग, बढ़ता हुआ प्रदूषण और बड़े स्तर पर गौरैया को मारना जैसे कई प्रमुख कारक हैं, जिनसे यह प्राणी आज लुप्त होने की कगार पर हैं।विगत कुछ वर्षो से लुप्त होते पक्षी गौरैया को बचाने के लिए सामाजिक और सरकारी स्तर पर बड़े पैमाने पर प्रयास किए गए, लेकिन सभी बेअसर साबित हुए। हाल ही में पर्यावरण पर शोध करने वाली एक रिपोर्ट यह बताती है कि देश में गौरैया की संख्या लगातर कम हो रही है। गौरैया से हमें प्रथम परिचय 1851 में अमेरिका के ब्रूकलिन इंस्टीट्यूट ने कराया था। यही कारण है कि 14 से 16 सेमी लंबी, पंख का फैलाव 19-25 सेमी, वजन 26 से 32 ग्राम, दिखने में सर्वत्र परिचित, सर्वव्यापी चहचहाने वाली गौरैया अब रहस्यमय पक्षी बनती जा रही है। मनमोहक, फुतीर्ली और चहलकदमी करने वाली गौरैया को हमेशा शरदकालीन ऋतु एवं शीतकालीन फसलों के दौरान खेत-खलिहानों में अनेक छोटे-छोटे पक्षियों के साथ फुदकते देखा जाता था। गौरैया की सामान्य पहचान उस छोटी सी चंचल प्रकृति की चिड़िया से है जो हल्के धातु रंग की होती है तथा चीं-चीं करती हुई यहां से वहां फुदकती रहती है। बसंत के मौसम में, फूलों की क्रोकूसेस, प्राइमरोजेस तथा एकोनाइट्ज फूलों की प्रजातियां गौरैया को ज्यादा आकर्षित करती हैं छोटी होते हुए भी यह चिड़िया लंबी उड़ान भरती है। गौरैया अब पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ एवं रहस्यमय होती जा रही है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में यह पक्षी गौरैया, गुजरात में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाब में चिड़ी, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, तमिलनाडु व केरल में कूरूवी, तेलगू में पिच्चूका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी, तथा ओडिशा में घरचटिया, कहते हैं। उर्दू भाषा में इसे चिड़िया तथा सिंधी भाषा में इसे झिरकी कहा जाता है। बीएनएचएस सर्वेक्षण जांच के आधार पर गौरैया की संख्या 2005 तक 97 प्रतिशत तक घट चुकी है।
बढ़ता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग, बढ़ता हुआ प्रदूषण और बड़े स्तर पर गौरैया को मारना जैसे कई प्रमुख कारक हैं, जिनसे यह प्राणी आज लुप्त होने की कगार पर हैं।पनपते खर-पतवार की कमी या गौरैया को खुला आमंत्रण देने वाले ऐसे खुले वनों की कमी जहां वह अपने घोंसले बनाया करती थी। आधुनिक युग में पक्के मकान, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का उपयोग तथा भोज्य-पदार्थ की उपलब्धता में कमी प्रमुख कारक हैं जो इनकी घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं। गौरैया एक बुद्धिमान चिड़िया है, जिसने घोंसला स्थल, भोजन तथा आश्रय परिस्थितियों में अपने को उनके अनुकूल बनाया है और इन्हीं विशेषताओं के कारण विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई। बड़ी ही विडंबना की बात है कि जो प्रजाति कभी बहुलता में यहां थी, कम हो रही है। जीवनशैली तथा इमारतों के आधुनिक रूप से आए परिवर्तन ने पक्षियों के आवासों तथा खाद्य स्रोतों को बर्बाद कर दिया है। खत्म होते बगीचे भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। विज्ञान और पर्यावरण केंद्र का कहना है कि कृषि में कीटनाशक दवाओं का अधिक इस्तेमाल, डीडीटी, आल्ड्रिन व डिआल्ड्रिन गौरैया की मौत के प्रमुख कारण हैं। खाद्य कड़ी में इन रसायनों का संचय गौरैया की प्रजनक प्रणाली को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। गौरैया का प्रमुख आहार अनाज के दाने, जमीन में बिखरे दाने है। अगर अनाज उपलब्ध न हो तो कीटों को भी खा लेती है घरों से बाहर फेंके गए कूड़े करकट में भी अपना आहार ढूंढ लेती है। इनके घोंसले भवनों की सुराखों या चट्टानों में, घर या नदी के किनारे, समुद्र तट या झाड़ियों में, आलों या प्रवेश द्वारों जैसे विभिन्न स्थानों पर होते हैं।
इनके घोंसले घास के तिनकों से बने होते हैं और इनमें पंख भरे होते हैं। इनके अंडे अलग-अलग आकार और पहचान के होते हैं। अंडे को मादा गौरैया सेती है। गौरैया की अंडा सेने की अवधि 10-12 दिनों की होती है जो कि सभी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि में सबसे छोटी है। इसकी प्रजनन क्षमता उम्र के साथ बढ़ती है और यह प्रजनन समय में परिवर्तन लाती है, बड़ी चिड़िया ऋतु से पहले अंडा देती है। पर रहस्यमय एवं लुप्त के कारण आज घर के बाहर चिड़ियों का झाड़ियों की डाली पर उछलना और उनका चहचहाना किसी को शायद ही दिखाई पड़ता हो। गौरैया भारत से ही नहीं बल्कि अनेक देशों से भी लुप्त हो रही हैं। पर्यावरण संतुलन में इनकी एक व्यापक भूमिका है। पौराणिक कथाओं में गौरैया की तुलना युगल प्रेमियों से की जाती है क्योंकि ये पक्षी सदा जोड़े में दिखाई देते हैं, मानो स्नेह की डोर में बंधे हुए हों। इन पक्षियों का आकार व आकाश में उड़ने की उनकी क्षमता जैसी उनकी विशेषताएं ही उन्हें जोड़ा बनाने, प्रेम के सूत्र में बंधने तथा एक-दूसरे को सुरक्षा और प्यार देने में सहायक होते हैं। घर के बाहर चिड़ियों का झाड़ियों की डाली पर उछलना और उनका चहचहाना किसी को शायद ही दिखाई पड़ता है।
बढ़ता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग, बढ़ता हुआ प्रदूषण और बड़े स्तर पर गौरैया को मारना जैसे कई प्रमुख कारक हैं, जिनसे यह प्राणी आज लुप्त होने की कगार पर हैं।पनपते खर-पतवार की कमी या गौरैया को खुला आमंत्रण देने वाले ऐसे खुले वनों की कमी जहां वह अपने घोंसले बनाया करती थी। आधुनिक युग में पक्के मकान, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का उपयोग तथा भोज्य-पदार्थ की उपलब्धता में कमी प्रमुख कारक हैं जो इनकी घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं। गौरैया एक बुद्धिमान चिड़िया है, जिसने घोंसला स्थल, भोजन तथा आश्रय परिस्थितियों में अपने को उनके अनुकूल बनाया है और इन्हीं विशेषताओं के कारण विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई। बड़ी ही विडंबना की बात है कि जो प्रजाति कभी बहुलता में यहां थी, कम हो रही है। जीवनशैली तथा इमारतों के आधुनिक रूप से आए परिवर्तन ने पक्षियों के आवासों तथा खाद्य स्रोतों को बर्बाद कर दिया है। खत्म होते बगीचे भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। विज्ञान और पर्यावरण केंद्र का कहना है कि कृषि में कीटनाशक दवाओं का अधिक इस्तेमाल, डीडीटी, आल्ड्रिन व डिआल्ड्रिन गौरैया की मौत के प्रमुख कारण हैं। खाद्य कड़ी में इन रसायनों का संचय गौरैया की प्रजनक प्रणाली को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। गौरैया का प्रमुख आहार अनाज के दाने, जमीन में बिखरे दाने है। अगर अनाज उपलब्ध न हो तो कीटों को भी खा लेती है घरों से बाहर फेंके गए कूड़े करकट में भी अपना आहार ढूंढ लेती है। इनके घोंसले भवनों की सुराखों या चट्टानों में, घर या नदी के किनारे, समुद्र तट या झाड़ियों में, आलों या प्रवेश द्वारों जैसे विभिन्न स्थानों पर होते हैं।
इनके घोंसले घास के तिनकों से बने होते हैं और इनमें पंख भरे होते हैं। इनके अंडे अलग-अलग आकार और पहचान के होते हैं। अंडे को मादा गौरैया सेती है। गौरैया की अंडा सेने की अवधि 10-12 दिनों की होती है जो कि सभी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि में सबसे छोटी है। इसकी प्रजनन क्षमता उम्र के साथ बढ़ती है और यह प्रजनन समय में परिवर्तन लाती है, बड़ी चिड़िया ऋतु से पहले अंडा देती है। पर रहस्यमय एवं लुप्त के कारण आज घर के बाहर चिड़ियों का झाड़ियों की डाली पर उछलना और उनका चहचहाना किसी को शायद ही दिखाई पड़ता हो। गौरैया भारत से ही नहीं बल्कि अनेक देशों से भी लुप्त हो रही हैं। पर्यावरण संतुलन में इनकी एक व्यापक भूमिका है। पौराणिक कथाओं में गौरैया की तुलना युगल प्रेमियों से की जाती है क्योंकि ये पक्षी सदा जोड़े में दिखाई देते हैं, मानो स्नेह की डोर में बंधे हुए हों। इन पक्षियों का आकार व आकाश में उड़ने की उनकी क्षमता जैसी उनकी विशेषताएं ही उन्हें जोड़ा बनाने, प्रेम के सूत्र में बंधने तथा एक-दूसरे को सुरक्षा और प्यार देने में सहायक होते हैं। घर के बाहर चिड़ियों का झाड़ियों की डाली पर उछलना और उनका चहचहाना किसी को शायद ही दिखाई पड़ता है।
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