Saturday, 10 November 2018

पटाखों के प्रदूषण से बच्चों की जान का खतरा



पटाखों के प्रदूषण से बच्चों की जान का खतरा

प्रदूषण हर साल की कहानी है। लेकिन इसका कोई समाधान निकलता नहीं दिखता। नतीजा है कि वायु प्रदूषण लगातार अधिक घातक होता जा रहा है। इसकी तस्दीक विश्व स्वास्थ्य संगठन की वायु प्रदूषण और बच्चों के स्वास्थ्य पर जारी ताजा रिपोर्ट से भी हुई है। उसके अनुसार  दुनिया भर में 18 साल से कम उम्र के 93 फीसदी लोग प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। 2016 में वायु प्रदूषण से होने वाले सांस संबंधी बीमारियों की वजह से दुनिया भर में 5 साल से कम उम्र के 5.4 लाख बच्चों की मौत हुई है साल 2016 में घरेलू प्रदूषण के कारण पांच साल से कम उम्र के 66 890.5 बच्चों की मौत हो गई ।  वायु प्रदूषण बच्चों के स्वास्थ्य के लिये सबसे बड़ा खतरा बन गया है। नाइट्रोजन डॉयक्साइड  भी पीएम 2.5 और ओजोन के बनने में अपना योगदान देता है, ये दोनों वायु प्रदूषण के सबसे खतरनाक रूपों में बड़े क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। इस साल सबसे ज्यादा नाइट्रोजन डॉयक्साइड वाले क्षेत्रों में दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, भारत और चीन के नाम सबसे ऊपर हैं। ये क्षेत्र कोयला आधारित पावर प्लांट के लिए जाने जाते हैं। भारत में दिल्ली-एनसीआर, सोनभद्र- सिंगरौली, कोरबा तथा ओडीशा का तेलचर क्षेत्र ऐसे 50 शहरों की सूची में शामिल हैं। ये तथ्य साफ-साफ बता रहे हैं कि ऊर्जा और परिवहन क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन जलने का वायु प्रदूषण से सीधा-सीधा संबंध है। बच्चे बाहर खेलें-कूदें, खिलखिलाएं और खुल कर सांस लें तो माना जाता है कि इससे उनका शारीरिक विकास होगा. लेकिन अब यही खुल कर सांस लेना बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है.हवा में बढ़ता प्रदूषण उनमें कई तरह की बीमारियां पैदा कर रहा है और उनके शारीरिक और मानसिक विकास में रुकावट डाल रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की हालिया रिपोर्ट बच्चों पर प्रदूषण के गंभीर प्रभाव को दिखाती है. रिपोर्ट के मुताबिक साल 2016 में पांच साल से कम उम्र के एक लाख से ज्यादा (101 788.2) बच्चों की प्रदूषण के कारण मौत हो गई। इसके कारण भारत में 60,987, नाइजीरिया में 47,674, पाकिस्तान में 21,136 और कांगों में 12,890 बच्चों की जान चली गई। इन बच्चों में लड़कियों की संख्या ज्यादा है. कुल बच्चों में 32,889 लड़कियां और 28,097 लड़के शामिल हैं.प्रदूषण से सिर्फ़ पैदा हो चुके बच्चे ही नहीं बल्कि गर्भ में मौजूद बच्चों पर भी बुरा असर पड़ता है।
 प्रदूषण के कारण समय से पहले डिलीवरी, जन्म से ही शारीरिक या मानसिक दोष, कम वजन और मृत्यु तक हो सकती है.ऐसे तो प्रदूषण का सभी पर बुरा असर माना जाता है, लेकिन रिपोर्ट की मानें तो बच्चे इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. प्रदूषण बच्चों के लिए कैसे जानलेवा साबित होता है, गर्भ में मौजूद बच्चे को यह कैसे बीमार कर सकता है.
नवजात बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है. उनके फेफड़ों का विकास ठीक से नहीं हुआ होता है. ऐसे में प्रदूषण उसे जल्दी प्रभावित करता है. उसे खांसी, जुकाम जैसी एलर्जी हो सकती हैं. यहां तक कि अस्थमा और सांस लेने में दिक्कत बढ़ जाती है. यही बीमारियां बढ़कर मौत का कारण बन सकती हैं. इस दौरान बच्चे का मानसिक विकास भी हो रहा होता है और प्रदूषण के कण इसमें बाधा बनते हैं। 7 नवंबर 2016 को वायु प्रदूषण का यह हाल था कि दिल्ली के सभी प्राइमरी स्कूलों की तीन दिन के लिए बंद करना पड़ा। यही हाल पिछले वर्ष राजस्थान का भी रहा। दीपावली के आसपास जयपुर, जोधपुर, उदयपुर में पीएम 10 पीएम 2.5 सहित कार्बन मोनो आक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड, कार्बन डाई आक्साइड आदि गैसों का स्तर सीमा से अधिक पाया गया था।  हम सभी यह जानते है कि पटाखों बम चलाने से वायु प्रदूषण होता है। पटाखों से निकले ने वाले प्रदूषक, हवा में चारों और फैल जाते है। जो केवल मानव जाति के स्वास्थ्य पर ही बुरा प्रभाव तो डालते हीं है साथ ही जीव-जन्तु पेड-पौधों को भी भारी नुकसान पहुंचाते है। पटाखों से निकले तत्व जैसे लिथियम, पोटेशियम, लेड, मर्करी, बेरेलियम आदि पूरे वायुमंडल मे फैल जाते है जो हमारे शरीर के धीमे जहर है।   एक फुलझड़ी से 74 सिगरेट के बराबर और एक अनार बम से 34 सिगरेट के बराबर धुआंं निकलता है इससे सोच सकते है कि दीपावली पर चलने वाले पटाखों से कितना विषैला धुआ वातावरण में फैलता होगा। इस वर्ष दीपावली पर स्माग (विषैला धुआं) की संभावना कम होगी जैसे सर्दी बढेगी, वायुमंडल में मौजूद विषैला धुआं संघनित होकर वापिस धरातल के आस पास जाएगा। जो स्मॉग का रुप ले लेगा। यह पटाखों से निकला विषैला धुआं आज नहीं तो कल मानव के लिए घातक होगा। पटाखे जलाने के कारण भारी मात्रा जहरीला धुआं उत्पन्न होता है। पटाखे जलाने से उत्पन्न यह धुआं कारखानों और गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से भी अधिक खतरनाक होता है। यह वायुमंडल को काफी बुरे तरीके से प्रभावित करता है और कई सारे वायु जनित बीमारियों का कारण बनता है। इस हानिकारक धुएं के कारण लोगो में श्वास संबंधित के साथ ही अन्य कई बीमारियां भी उत्पन्न होती है। इसके साथ ही पशु-पक्षी और अन्य कई जीव-जन्तु पटाखों द्वारा उत्पन्न होने वाले हानिकारक धुएं से बुरी तरीके से प्रभावित होते है। जैसे-जैसे प्रदूषण का स्तर बढ़ता है, मानव स्वास्थ्य पर भी इसका काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। हवा नकरात्मक प्रदूषको से भर जाती है, जिसके कारण लोगो में श्वास लेने में समस्या, फेफड़ो का जाम होना, आँखों में जलन महसूस होना, आँखों का लाल होना और त्वचा संबंधित बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। वह लोग जो पहले से ही अस्थमा और ह्रदय रोग जैसी बीमारियों से पीड़ीत होते हैं, वह पटाखे जलाने से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण से सबसे बुरे तरीके से प्रभावित होते है।
इसके कारण उनका सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा ध्वनि प्रदूषण के कारण दिवाली का खुशनुमा त्योहार दुखदायी बन जाता है। पटाखों द्वारा उत्पन्न शोर-शराबे के कारण लोगो में बहरेपन की समस्या भी उत्पन्न हो सकती है। दीवाली साल में केवल एक बार मनाई जाती है, लेकिन फिर ऐसा देखा गया है कि कई लोग इस त्योहार के जश्न में हफ्तों पहले से ही पटाखें जलाना शुरू कर देते हैं। दिवाली के दिन तो आतिशबाजी की संख्या बहुत ही बढ़ जाती है। नतीजतन, दिवाली के त्योहार के दौरान कई सारे बड़े शहरों के वायु की गुणवत्ता काफी खराब हो जाती है।  पटाखों में पोटेशियम, सल्फर, कार्बन, एंटीमोनी, बेरियम नाइट्रेट, एल्यूमीनियम, स्ट्रोंटियम, तांबे और लिथियम जैसे तत्व होते हैं। जब वे जलते हैं, तो यह उत्सर्जित रसायन हवा में धुएं या पिर लौह कड़ों के रुप में मिल जाते है। भले ही यह कण एक हफ्ते से अधिक समय तक वायुमंडल में नहीं रह सकते हैं, पर जब लोग इस हवा में सांस लेते हैं तो इसके उनपर कई दीर्घकालिक नकरात्मक प्रभाव पड़ते है। ज्यादातर लोगों का मानना है कि दिवाली के एक दिन पटाखे जलाने से हमारे ग्रह के वातावरण पर कोई खास प्रभाव नही पड़ेगा, लेकिन यह सत्य नही है। आकड़ो से पता चलता है कि दिवाली के दिन पटाखे जलाने के कारण कई सारी गड़ियों के सड़क पर कई दिनों तक के चलने के बराबर का प्रदूषण उत्पन्न होता है। इसलिए यह ग्लोबल वार्मिंग की मात्रा में भी प्रतिवर्ष काफी वृद्धि करता है। पटाखे जलाने के कारण भारी मात्रा जहरीला धुआं उत्पन्न होता है। पटाखे जलाने से उत्पन्न यह धुआं कारखानों और गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से भी अधिक खतरनाक होता है। यह वायुमंडल को काफी बुरे तरीके से प्रभावित करता है और कई सारे वायु जनित बीमारियों का कारण बनता है। इस हानिकारक धुएं के कारण लोगो में श्वास संबंधित के साथ ही अन्य कई बीमारियां भी उत्पन्न होती है। इसके साथ ही पशु-पक्षी और अन्य कई जीव-जन्तु पटाखों द्वारा उत्पन्न होने वाले हानिकारक धुएं से बुरी तरीके से प्रभावित होते है। छोटे कदम - बड़े परिवर्तन ला सकते हैं। पटाखों को फोड़ने से न सिर्फ हवा की गुणवत्ता में बिगड़ती है बल्कि यह हमारे स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। तो भला हमें ऐसी गतिविधि में क्यों शामिल होना चाहिए,जिससे पर्यावरण के साथ-साथ हमारे जीवन पर भी इतने गंभीर दुष्प्रभाव पड़ते हो?पटाखों के बिना दीवाली मनाकर हम वातावरण को स्वस्थ्य करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। दिवाली एक सुंदर और मनमोहक त्यौहार है। कई सारे रिवाज और परंपराएं इस त्यौहार का एक हिस्सा हैं। इस दिन लोग पारंपरिक कपड़े पहननेऔरअपने घरों को सजाने और रोशन करने का काम करते हैं तथा अपने प्रियजनों के साथ ताश खेलने, घर पर मिठाई तथा रंगोली बनाने जैसे मनोरंजक कार्यों में हिस्सा लेते हैं।और इस सूची से आतिशबाजी को हटाने के बाद भीहमारे मनोरंजन पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। लेकिन हमारा यह फैसला पर्यावरण के लिए बहुत अच्छा साबित होगा। हमें स्वंय पटाखे फोड़ने बंद करने के साथ ही हमारे आस-पास के लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करना होगा। इसके साथ ही हमें बच्चों को भी विशेष रूप से पर्यावरण पर पटाखों के हानिकारक प्रभावों के बारे में शिक्षित करना चाहिए। हमारे तरफ से किये गये यह छोटे-छोटे प्रयास बड़ा अंतर ला सकते हैं। दिवाली उत्सव का समय होता है। यह लोगो के चेहरों पर खुशी और मुस्कान लाने का समय होता है। पर्यावरण को प्रदूषित करके हमें इस मनमोहक पर्व का मजा खराब नही करना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे द्वारा किये जाने वाले यह छोटे-छोटे कार्य वैश्विक चिंता का कारण बन गये हैं। इनके द्वारा ग्लोबल वार्मिंग में भी काफी ज्यादा वृद्धि देखने को मिल रही है, जोकि आज के समय में पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा चिंता का कारण है। इसीलिए हमें स्वंय अपनी बुद्धिमता और विवेक का इस्तेमाल करते हुए पटाखों के उपयोग को बंद कर देना चाहिए।

गुम होती जा रही लोक शिल्प और कुम्हारों के चाक

गुम होती जा रही लोक शिल्प और कुम्हारों के चाक
आधुनिक युग में बाजारवादी संस्कृति के चलते लघु एवं कुटीर उद्योगों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हमारी लोक शिल्प कला एक-एक करके दम तोड़ती जा रहीं हैं।  जो बांस की खपच्चियों से अपनी कला को विविध आयाम देते हैं। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं से मानव समाज अपनी आवश्यकताओं की जहां पूर्ति करता है। बांस, ताड़, और सरई से बनी हुई कुछ ऐसी वस्तुएं हैं, जो लोक शिल्प के सुंदर उदाहरण हैं। आधुनिक युग में प्लास्टिक के प्रचलन से इस पर भी काफी असर पड़ा है। प्लास्टिक उद्योग ने जहां कुम्हारों के पेट पर लात मारा है वहीं बांस से निर्मित शिल्प कला का सृजन करने वाले धरकार जाति की रोजी रोटी पर भी पड़ा है। धरकार जाति के लोग बंजारा जीवन के उदाहरण हैं, यानि इनका स्थायी निवास नहीं होता है, आज कहीं और तो कल कहीं और ठिकाना बना लेते हैं। हालांकि कुछ स्थायी रूप से झोपड़ियां बनाकर कर शहर या कसबों के पास में रहते है। जहां झोपड़ी में लोक शिल्प का सृजन कर अपनी जीविकोपार्जन कर रहे हैं। धरकार जाति बांस से बेना, दउरी, सूप, झाबा, डोलची, ढोकरी, चटाई के साथ-साथ पूजा-पाठ के लिए पवित्र आसनी तथा विवाह में प्रयुक्त होने वाला डाल और झपोली बनाते हैं। लेकिन अब बांस भी महंगाई की भेंट चढ़ गया है, जो बांस पहले 20 से 30 रुपये में मिल जाता था। वहीं अब 80 रुपये से कम में नहीं मिलता है। इसके साथ ही बांस की खेती भी नहीं हो रही है। जिसके कारण बड़ी मुश्किलों से बांस मिल पाता है।  इस महंगाई में पूरी मेहनत के बाद में भी एक आदमी बड़ी मुश्किल से 40 से 50 रुपये ही कमा पाता हूं।
गरीबी से जूझते दीपों के कारीगर कभी उत्सवों की शान समझे जाने वाले दीपों का व्यवसाय आज संकट के दौर से गुजर रहा है,और दीपावली में लोगों का घर रौशन करने वाले मिट्टी के कारीगर आज दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं। कुम्हार के चाक से बने खास दीपक दीपावली में चार चांद लगाते हैं लेकिन बदलती जीवन शैली और आधुनिक परिवेश में मिट्टी को आकार देने वाला कलाकार आज के व्यस्त जीवनशैली एवं आधुनिकता की चकाचौंध मे लुप्त होता जा रहा है। सैकड़ों - हजारों घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कुम्हारों की जिंदगी मे आज भी अंधेरा ही अंघेरा है। बाजारों में दीयों की जगह आधुनिक तरह की तमाम रंग-बिरंगी बिजली की झालरों ने ले लिया हैे। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के सामने समस्या ही समस्या मुँह बाए खड़ी हैे। दीये, मिट्टी से बने खिलौने व दूसरे बर्तन बनाने के लिए गाँव के जिन तालाबों से ये कुम्हार मिट्टी निकालते थे उस पर अब लोगों को आपत्ति हैे। गोल-गोल घूमते पत्थर के चाक पर मिट्टी के दीये ,गुडियां व अन्य सामग्री बनाते इन कुम्हारों की अंगुलियों मे जो कला है वह दूसरे लोगों मे शायद ही होे! घूमते चाक पर मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाने वाले इन कुम्हारों की याद दीपावली आने से पहले हर शख्स को आ जाती हैे। तालाबों से मिट्टी लाकर उन्हे सुखाना, सूखी मिट्टी को बारीक कर उसे छानना और उसके बाद गीली कर चाक पर रख तरह तरह के वस्तुओं को आकार बनाना इन कुम्हारों की जिंदगी का अहम काम हैे। इसी हुनर के चलते कुम्हारों के परिवार का भरण पोषण होता हैे। कुम्हार समाज की महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं। चाक चलाने का काम पुरुष करते हैं तो दूसरी ओर मिट्टी को भिगोने साफ करने और तैयार करने का काम महिलाएं करती हैं। इसके अलावा मिट्टी से बने खिलौने, व अन्य सामग्रियों को रंगने का काम भी महिलाओं के ही जिम्मे होता है। शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक चायनीज दीये की मांग हर साल बढती ही जा रही है। दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी धूप में मेहनत करने के बाद भी मिट्टी के व्यवसाय में महीनों लगा रहना पड़ता है उसके बावजूद न तो वाजिब दाम मिलते हैं और न ही खरीददार। समय की मार और आधुनिकता एवं परिवेश के चलते लोग अब मिट्टी के दीये उतने पसंद नहीं करते। दीपावली के त्योहार पर दीये शगुन के रुप में टिमटिमाते नजर आते थे जो अब लुप्त होने के कगार पर है। कच्चा माल भी महंगा हो गया है। दिन रात मेहनत के बाद हमें मजदूरी के रुप में अस्सी से 100 रुपये की कमाई हो पाती है। सारी बातों पर अगर गौर किया जाए तो मिट्टी से लाल खुद दाने दाने को मोहताज हैं। इनकी आर्थिक स्थिति दिनप्रतिदिन गिरने से इनको अपना पुस्तैनी कार्य व कारोबार छोड़ परिवार के भरण पोषण के लिए अन्य कार्यों के तरफ रुख करने को मजबूर होना पड़ रहा है।  एक समय था जब साल के बारहों महीने कुम्हारो का चाक चला करता था। उन्हें कुल्हड़, घड़ा, कलश, सुराही, दीये, ढकनी, आदि बनाने से फुर्सत नहीं मिलती थी। पूरा परिवार इसी से अच्छी कमाई कर लेता था, परंतु जब से थमार्कोल के पत्तल, दोने, प्लेट, चाय पीने के कप आदि का बाजार में प्रभुत्व बढ़ा कुम्हारों के चाक की रफ्तार धीमी पड़ गयी। मट्टी के बर्तन बनाने की कला मृतप्राय: हो चली थी आधुनिकता की चकाचौंध में यह कला अपने को मृत प्राय महसूस कर रही है। युवा वर्ग इनसे नाता तोड़ने को मजबूर हो गया है तो सरकारें भी इन्हें संजोये रखने के प्रति उदासीन हैं। अपनी तो जिंदगी चाक हुई, समय के थपेड़ों से।  एक समय वह भी था जब ये चाक निरंतर चलते रहते थे। कुम्हार एक-से-एक सुंदर एवं कलात्मक कृतियां गढ़ कर प्रफुल्लित और गौरवान्वित हो उठता था।आज ऐसा समय है, जब किसी को उसकी आवश्यकता नहीं है। मिट्टी के बर्तन को मूर्त रूप देना एक दुर्लभ कला है। परंतु इस विद्या में पारांगत कुम्हारों की कला विलुप्त होने के कगार पर खड़ी है।
पहले त्योहारों के अवसर पर उनके द्वारा बनाये गये मिट्टी के पात्रों का इस्तेमाल तो होता ही था,शादी विवाह और अन्य समारोहों में भी अपनी शुद्धता के चलते मिट्टी के पात्र चलन में थे। चाय की दुकानें तो इन्हीं के कुल्हडों से गुलजार होती थीं।आज के प्लास्टिक और थमार्कोल के गिलासों की तरह कुल्हडों से पर्यावरण को भी कोई खतरा नहीं था। आधुनिकता की चकाचौंध ने सब उलट-पुलट कर रख दिया। कुम्हार अपनी कला से मुंह मोड़ने को मजबूर हो चुका है।युवा वर्ग तो अब इस कला से जुड़ने की बजाय अन्य रोजगार अपनाना श्रेयस्कर समझता है। उसे चाक के साथ अपनी जिंदगी खाक करने का जरा भी शौक नहीं है।इसके सहारे अब तो दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से हो पाता है। मिट्टी के बर्तन के बदले अब प्लास्टिक उद्योग की चांदी मिट्टी के पात्रों की जगह पूरी तरह से प्लास्टिक उद्योग ले चुका है, चाय की दुकान हो या दीपावली का त्योहार। एकबार फिर कुम्हारों में जीने की आस औरपैतृक धरोहर को संवारने में बल मिलेगा। उसी प्रकार कुम्हारों के पारंपरागत व्यवसाय को बचाने के लिए सुरक्षा प्रदान करें। उन्होंने कुम्हारी व्यवसाय को नयी संजीवनी देने की अपील की है। मिट्टी के लिये उन्हे जमीन के पट्टे भी दिये जायें। चुनाव में आश्वासन तो सभी देते है, लेकिन सुविधायें कभी नहीं मिलती।श्री बदरी ने बताया कि व्यवसाय को मुख्यमंत्री की संजीवनी मिलने से कुम्हार समाज को जीने का सहारा मिल जायेगा।

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