गुम होती जा रही लोक शिल्प और कुम्हारों के चाक
आधुनिक युग में बाजारवादी संस्कृति के चलते लघु एवं कुटीर उद्योगों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हमारी लोक शिल्प कला एक-एक करके दम तोड़ती जा रहीं हैं। जो बांस की खपच्चियों से अपनी कला को विविध आयाम देते हैं। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं से मानव समाज अपनी आवश्यकताओं की जहां पूर्ति करता है। बांस, ताड़, और सरई से बनी हुई कुछ ऐसी वस्तुएं हैं, जो लोक शिल्प के सुंदर उदाहरण हैं। आधुनिक युग में प्लास्टिक के प्रचलन से इस पर भी काफी असर पड़ा है। प्लास्टिक उद्योग ने जहां कुम्हारों के पेट पर लात मारा है वहीं बांस से निर्मित शिल्प कला का सृजन करने वाले धरकार जाति की रोजी रोटी पर भी पड़ा है। धरकार जाति के लोग बंजारा जीवन के उदाहरण हैं, यानि इनका स्थायी निवास नहीं होता है, आज कहीं और तो कल कहीं और ठिकाना बना लेते हैं। हालांकि कुछ स्थायी रूप से झोपड़ियां बनाकर कर शहर या कसबों के पास में रहते है। जहां झोपड़ी में लोक शिल्प का सृजन कर अपनी जीविकोपार्जन कर रहे हैं। धरकार जाति बांस से बेना, दउरी, सूप, झाबा, डोलची, ढोकरी, चटाई के साथ-साथ पूजा-पाठ के लिए पवित्र आसनी तथा विवाह में प्रयुक्त होने वाला डाल और झपोली बनाते हैं। लेकिन अब बांस भी महंगाई की भेंट चढ़ गया है, जो बांस पहले 20 से 30 रुपये में मिल जाता था। वहीं अब 80 रुपये से कम में नहीं मिलता है। इसके साथ ही बांस की खेती भी नहीं हो रही है। जिसके कारण बड़ी मुश्किलों से बांस मिल पाता है। इस महंगाई में पूरी मेहनत के बाद में भी एक आदमी बड़ी मुश्किल से 40 से 50 रुपये ही कमा पाता हूं।
गरीबी से जूझते दीपों के कारीगर कभी उत्सवों की शान समझे जाने वाले दीपों का व्यवसाय आज संकट के दौर से गुजर रहा है,और दीपावली में लोगों का घर रौशन करने वाले मिट्टी के कारीगर आज दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं। कुम्हार के चाक से बने खास दीपक दीपावली में चार चांद लगाते हैं लेकिन बदलती जीवन शैली और आधुनिक परिवेश में मिट्टी को आकार देने वाला कलाकार आज के व्यस्त जीवनशैली एवं आधुनिकता की चकाचौंध मे लुप्त होता जा रहा है। सैकड़ों - हजारों घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कुम्हारों की जिंदगी मे आज भी अंधेरा ही अंघेरा है। बाजारों में दीयों की जगह आधुनिक तरह की तमाम रंग-बिरंगी बिजली की झालरों ने ले लिया हैे। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के सामने समस्या ही समस्या मुँह बाए खड़ी हैे। दीये, मिट्टी से बने खिलौने व दूसरे बर्तन बनाने के लिए गाँव के जिन तालाबों से ये कुम्हार मिट्टी निकालते थे उस पर अब लोगों को आपत्ति हैे। गोल-गोल घूमते पत्थर के चाक पर मिट्टी के दीये ,गुडियां व अन्य सामग्री बनाते इन कुम्हारों की अंगुलियों मे जो कला है वह दूसरे लोगों मे शायद ही होे! घूमते चाक पर मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाने वाले इन कुम्हारों की याद दीपावली आने से पहले हर शख्स को आ जाती हैे। तालाबों से मिट्टी लाकर उन्हे सुखाना, सूखी मिट्टी को बारीक कर उसे छानना और उसके बाद गीली कर चाक पर रख तरह तरह के वस्तुओं को आकार बनाना इन कुम्हारों की जिंदगी का अहम काम हैे। इसी हुनर के चलते कुम्हारों के परिवार का भरण पोषण होता हैे। कुम्हार समाज की महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं। चाक चलाने का काम पुरुष करते हैं तो दूसरी ओर मिट्टी को भिगोने साफ करने और तैयार करने का काम महिलाएं करती हैं। इसके अलावा मिट्टी से बने खिलौने, व अन्य सामग्रियों को रंगने का काम भी महिलाओं के ही जिम्मे होता है। शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक चायनीज दीये की मांग हर साल बढती ही जा रही है। दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी धूप में मेहनत करने के बाद भी मिट्टी के व्यवसाय में महीनों लगा रहना पड़ता है उसके बावजूद न तो वाजिब दाम मिलते हैं और न ही खरीददार। समय की मार और आधुनिकता एवं परिवेश के चलते लोग अब मिट्टी के दीये उतने पसंद नहीं करते। दीपावली के त्योहार पर दीये शगुन के रुप में टिमटिमाते नजर आते थे जो अब लुप्त होने के कगार पर है। कच्चा माल भी महंगा हो गया है। दिन रात मेहनत के बाद हमें मजदूरी के रुप में अस्सी से 100 रुपये की कमाई हो पाती है। सारी बातों पर अगर गौर किया जाए तो मिट्टी से लाल खुद दाने दाने को मोहताज हैं। इनकी आर्थिक स्थिति दिनप्रतिदिन गिरने से इनको अपना पुस्तैनी कार्य व कारोबार छोड़ परिवार के भरण पोषण के लिए अन्य कार्यों के तरफ रुख करने को मजबूर होना पड़ रहा है। एक समय था जब साल के बारहों महीने कुम्हारो का चाक चला करता था। उन्हें कुल्हड़, घड़ा, कलश, सुराही, दीये, ढकनी, आदि बनाने से फुर्सत नहीं मिलती थी। पूरा परिवार इसी से अच्छी कमाई कर लेता था, परंतु जब से थमार्कोल के पत्तल, दोने, प्लेट, चाय पीने के कप आदि का बाजार में प्रभुत्व बढ़ा कुम्हारों के चाक की रफ्तार धीमी पड़ गयी। मट्टी के बर्तन बनाने की कला मृतप्राय: हो चली थी आधुनिकता की चकाचौंध में यह कला अपने को मृत प्राय महसूस कर रही है। युवा वर्ग इनसे नाता तोड़ने को मजबूर हो गया है तो सरकारें भी इन्हें संजोये रखने के प्रति उदासीन हैं। अपनी तो जिंदगी चाक हुई, समय के थपेड़ों से। एक समय वह भी था जब ये चाक निरंतर चलते रहते थे। कुम्हार एक-से-एक सुंदर एवं कलात्मक कृतियां गढ़ कर प्रफुल्लित और गौरवान्वित हो उठता था।आज ऐसा समय है, जब किसी को उसकी आवश्यकता नहीं है। मिट्टी के बर्तन को मूर्त रूप देना एक दुर्लभ कला है। परंतु इस विद्या में पारांगत कुम्हारों की कला विलुप्त होने के कगार पर खड़ी है।
पहले त्योहारों के अवसर पर उनके द्वारा बनाये गये मिट्टी के पात्रों का इस्तेमाल तो होता ही था,शादी विवाह और अन्य समारोहों में भी अपनी शुद्धता के चलते मिट्टी के पात्र चलन में थे। चाय की दुकानें तो इन्हीं के कुल्हडों से गुलजार होती थीं।आज के प्लास्टिक और थमार्कोल के गिलासों की तरह कुल्हडों से पर्यावरण को भी कोई खतरा नहीं था। आधुनिकता की चकाचौंध ने सब उलट-पुलट कर रख दिया। कुम्हार अपनी कला से मुंह मोड़ने को मजबूर हो चुका है।युवा वर्ग तो अब इस कला से जुड़ने की बजाय अन्य रोजगार अपनाना श्रेयस्कर समझता है। उसे चाक के साथ अपनी जिंदगी खाक करने का जरा भी शौक नहीं है।इसके सहारे अब तो दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से हो पाता है। मिट्टी के बर्तन के बदले अब प्लास्टिक उद्योग की चांदी मिट्टी के पात्रों की जगह पूरी तरह से प्लास्टिक उद्योग ले चुका है, चाय की दुकान हो या दीपावली का त्योहार। एकबार फिर कुम्हारों में जीने की आस औरपैतृक धरोहर को संवारने में बल मिलेगा। उसी प्रकार कुम्हारों के पारंपरागत व्यवसाय को बचाने के लिए सुरक्षा प्रदान करें। उन्होंने कुम्हारी व्यवसाय को नयी संजीवनी देने की अपील की है। मिट्टी के लिये उन्हे जमीन के पट्टे भी दिये जायें। चुनाव में आश्वासन तो सभी देते है, लेकिन सुविधायें कभी नहीं मिलती।श्री बदरी ने बताया कि व्यवसाय को मुख्यमंत्री की संजीवनी मिलने से कुम्हार समाज को जीने का सहारा मिल जायेगा।
आधुनिक युग में बाजारवादी संस्कृति के चलते लघु एवं कुटीर उद्योगों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हमारी लोक शिल्प कला एक-एक करके दम तोड़ती जा रहीं हैं। जो बांस की खपच्चियों से अपनी कला को विविध आयाम देते हैं। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं से मानव समाज अपनी आवश्यकताओं की जहां पूर्ति करता है। बांस, ताड़, और सरई से बनी हुई कुछ ऐसी वस्तुएं हैं, जो लोक शिल्प के सुंदर उदाहरण हैं। आधुनिक युग में प्लास्टिक के प्रचलन से इस पर भी काफी असर पड़ा है। प्लास्टिक उद्योग ने जहां कुम्हारों के पेट पर लात मारा है वहीं बांस से निर्मित शिल्प कला का सृजन करने वाले धरकार जाति की रोजी रोटी पर भी पड़ा है। धरकार जाति के लोग बंजारा जीवन के उदाहरण हैं, यानि इनका स्थायी निवास नहीं होता है, आज कहीं और तो कल कहीं और ठिकाना बना लेते हैं। हालांकि कुछ स्थायी रूप से झोपड़ियां बनाकर कर शहर या कसबों के पास में रहते है। जहां झोपड़ी में लोक शिल्प का सृजन कर अपनी जीविकोपार्जन कर रहे हैं। धरकार जाति बांस से बेना, दउरी, सूप, झाबा, डोलची, ढोकरी, चटाई के साथ-साथ पूजा-पाठ के लिए पवित्र आसनी तथा विवाह में प्रयुक्त होने वाला डाल और झपोली बनाते हैं। लेकिन अब बांस भी महंगाई की भेंट चढ़ गया है, जो बांस पहले 20 से 30 रुपये में मिल जाता था। वहीं अब 80 रुपये से कम में नहीं मिलता है। इसके साथ ही बांस की खेती भी नहीं हो रही है। जिसके कारण बड़ी मुश्किलों से बांस मिल पाता है। इस महंगाई में पूरी मेहनत के बाद में भी एक आदमी बड़ी मुश्किल से 40 से 50 रुपये ही कमा पाता हूं।
गरीबी से जूझते दीपों के कारीगर कभी उत्सवों की शान समझे जाने वाले दीपों का व्यवसाय आज संकट के दौर से गुजर रहा है,और दीपावली में लोगों का घर रौशन करने वाले मिट्टी के कारीगर आज दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं। कुम्हार के चाक से बने खास दीपक दीपावली में चार चांद लगाते हैं लेकिन बदलती जीवन शैली और आधुनिक परिवेश में मिट्टी को आकार देने वाला कलाकार आज के व्यस्त जीवनशैली एवं आधुनिकता की चकाचौंध मे लुप्त होता जा रहा है। सैकड़ों - हजारों घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कुम्हारों की जिंदगी मे आज भी अंधेरा ही अंघेरा है। बाजारों में दीयों की जगह आधुनिक तरह की तमाम रंग-बिरंगी बिजली की झालरों ने ले लिया हैे। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के सामने समस्या ही समस्या मुँह बाए खड़ी हैे। दीये, मिट्टी से बने खिलौने व दूसरे बर्तन बनाने के लिए गाँव के जिन तालाबों से ये कुम्हार मिट्टी निकालते थे उस पर अब लोगों को आपत्ति हैे। गोल-गोल घूमते पत्थर के चाक पर मिट्टी के दीये ,गुडियां व अन्य सामग्री बनाते इन कुम्हारों की अंगुलियों मे जो कला है वह दूसरे लोगों मे शायद ही होे! घूमते चाक पर मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाने वाले इन कुम्हारों की याद दीपावली आने से पहले हर शख्स को आ जाती हैे। तालाबों से मिट्टी लाकर उन्हे सुखाना, सूखी मिट्टी को बारीक कर उसे छानना और उसके बाद गीली कर चाक पर रख तरह तरह के वस्तुओं को आकार बनाना इन कुम्हारों की जिंदगी का अहम काम हैे। इसी हुनर के चलते कुम्हारों के परिवार का भरण पोषण होता हैे। कुम्हार समाज की महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं। चाक चलाने का काम पुरुष करते हैं तो दूसरी ओर मिट्टी को भिगोने साफ करने और तैयार करने का काम महिलाएं करती हैं। इसके अलावा मिट्टी से बने खिलौने, व अन्य सामग्रियों को रंगने का काम भी महिलाओं के ही जिम्मे होता है। शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक चायनीज दीये की मांग हर साल बढती ही जा रही है। दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी धूप में मेहनत करने के बाद भी मिट्टी के व्यवसाय में महीनों लगा रहना पड़ता है उसके बावजूद न तो वाजिब दाम मिलते हैं और न ही खरीददार। समय की मार और आधुनिकता एवं परिवेश के चलते लोग अब मिट्टी के दीये उतने पसंद नहीं करते। दीपावली के त्योहार पर दीये शगुन के रुप में टिमटिमाते नजर आते थे जो अब लुप्त होने के कगार पर है। कच्चा माल भी महंगा हो गया है। दिन रात मेहनत के बाद हमें मजदूरी के रुप में अस्सी से 100 रुपये की कमाई हो पाती है। सारी बातों पर अगर गौर किया जाए तो मिट्टी से लाल खुद दाने दाने को मोहताज हैं। इनकी आर्थिक स्थिति दिनप्रतिदिन गिरने से इनको अपना पुस्तैनी कार्य व कारोबार छोड़ परिवार के भरण पोषण के लिए अन्य कार्यों के तरफ रुख करने को मजबूर होना पड़ रहा है। एक समय था जब साल के बारहों महीने कुम्हारो का चाक चला करता था। उन्हें कुल्हड़, घड़ा, कलश, सुराही, दीये, ढकनी, आदि बनाने से फुर्सत नहीं मिलती थी। पूरा परिवार इसी से अच्छी कमाई कर लेता था, परंतु जब से थमार्कोल के पत्तल, दोने, प्लेट, चाय पीने के कप आदि का बाजार में प्रभुत्व बढ़ा कुम्हारों के चाक की रफ्तार धीमी पड़ गयी। मट्टी के बर्तन बनाने की कला मृतप्राय: हो चली थी आधुनिकता की चकाचौंध में यह कला अपने को मृत प्राय महसूस कर रही है। युवा वर्ग इनसे नाता तोड़ने को मजबूर हो गया है तो सरकारें भी इन्हें संजोये रखने के प्रति उदासीन हैं। अपनी तो जिंदगी चाक हुई, समय के थपेड़ों से। एक समय वह भी था जब ये चाक निरंतर चलते रहते थे। कुम्हार एक-से-एक सुंदर एवं कलात्मक कृतियां गढ़ कर प्रफुल्लित और गौरवान्वित हो उठता था।आज ऐसा समय है, जब किसी को उसकी आवश्यकता नहीं है। मिट्टी के बर्तन को मूर्त रूप देना एक दुर्लभ कला है। परंतु इस विद्या में पारांगत कुम्हारों की कला विलुप्त होने के कगार पर खड़ी है।
पहले त्योहारों के अवसर पर उनके द्वारा बनाये गये मिट्टी के पात्रों का इस्तेमाल तो होता ही था,शादी विवाह और अन्य समारोहों में भी अपनी शुद्धता के चलते मिट्टी के पात्र चलन में थे। चाय की दुकानें तो इन्हीं के कुल्हडों से गुलजार होती थीं।आज के प्लास्टिक और थमार्कोल के गिलासों की तरह कुल्हडों से पर्यावरण को भी कोई खतरा नहीं था। आधुनिकता की चकाचौंध ने सब उलट-पुलट कर रख दिया। कुम्हार अपनी कला से मुंह मोड़ने को मजबूर हो चुका है।युवा वर्ग तो अब इस कला से जुड़ने की बजाय अन्य रोजगार अपनाना श्रेयस्कर समझता है। उसे चाक के साथ अपनी जिंदगी खाक करने का जरा भी शौक नहीं है।इसके सहारे अब तो दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से हो पाता है। मिट्टी के बर्तन के बदले अब प्लास्टिक उद्योग की चांदी मिट्टी के पात्रों की जगह पूरी तरह से प्लास्टिक उद्योग ले चुका है, चाय की दुकान हो या दीपावली का त्योहार। एकबार फिर कुम्हारों में जीने की आस औरपैतृक धरोहर को संवारने में बल मिलेगा। उसी प्रकार कुम्हारों के पारंपरागत व्यवसाय को बचाने के लिए सुरक्षा प्रदान करें। उन्होंने कुम्हारी व्यवसाय को नयी संजीवनी देने की अपील की है। मिट्टी के लिये उन्हे जमीन के पट्टे भी दिये जायें। चुनाव में आश्वासन तो सभी देते है, लेकिन सुविधायें कभी नहीं मिलती।श्री बदरी ने बताया कि व्यवसाय को मुख्यमंत्री की संजीवनी मिलने से कुम्हार समाज को जीने का सहारा मिल जायेगा।
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