Thursday, 19 September 2024

 

कॉस्मोपॉलिटन शहर के कारण बड़े फिल्मकार मुंबई आकर बसे, आर्थिक राजधानी होने का भी फिल्म इंडस्ट्री को मिला लाभ

ल्यूमियर ब्रदर्स ने 7 जुलाई 1896 को मुंबई के साधारण से वॉटसन होटल में अपनी शॉर्ट फिल्में दिखाई थीं। दर्शकों में ज्यादातर अंग्रेज और कुछ भारतीय थे। यहां लोगों ने पहली बार मोशन पिक्चर देखी थी। तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री में एक होगा और मुंबई शहर उसका सबसे बड़ा केंद्र बनेगा। देश में हर साल 1500 से 2000 फिल्में बनती हैं। मीडिया कंसल्टेंसी फर्म ऑर्मैक्स मीडिया के अनुसार 2023 में भारत की सभी भाषाओं का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 12,226 करोड़ रुपये रहा, जिसमें हिंदी सिनेमा या कहें बॉलीवुड का कलेक्शन 5,380 करोड़ रुपये था। मुंबई शुरू से भारत में फिल्म इंडस्ट्री का मक्का रही है। मुंबई में ही बॉलीवुड के बसने का पहला कारण दादा साहब फाल्के को कहा जाता है। दूसरा कारण है मराठी रंगमंच और मराठी सिनेमा जो काफी समृद्ध रहा है। प्री-टॉकीज काल में हिंदी सिनेमा के समानांतर मराठी सिनेमा भी काफी डेवलप हो रहा था। महाराष्ट्र की अपनी संस्कृति भी काफी समृद्ध रही है। मुंबई का भारत की आर्थिक राजधानी होना तीसरा बड़ा कारण है। एक और कारण है वहां की सरकार का रुख। राज्य की सभी सरकारों ने हमेशा फिल्म इंडस्ट्री को प्रोत्साहित किया।

दादा साहब फाल्के से शुरुआत

दरअसल ल्यूमियर ब्रदर्स (Lumière brothers) ने 1895 में सिनेमाटोग्राफ (कैमरा, फिल्म प्रोसेसिंग और प्रोजेक्शन सिस्टम एक साथ) का आविष्कार किया था। उनकी उस स्क्रीनिंग से प्रेरित होकर दादा साहब फाल्के लंदन गए और फिल्म निर्माण की तकनीक सीखी। वहां से लौटकर कुछ असफल प्रयोगों के बाद उन्होंने ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बनाई जो 1913 में रिलीज हुई। वह भारत में बनी पहली फिल्म थी।उटलुक हिंदी पत्रिका के संपादक और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म आलोचक गिरिधर झा कहते हैं, “शुरुआत मूक फिल्मों से हुई और दादा साहब फाल्के उस दौर के पायनियर थे। दूसरा दौर 1931 में शुरू हुआ जब भारत की पहली बोलती फिल्म आर्देशिर ईरानी की ‘आलम आरा’ आई।”से, ल्यूमियर ब्रदर्स की उस स्क्रीनिंग से जुड़ी एक और बात है। स्क्रीनिंग के समय वहां पर स्थानीय फोटोग्राफर हरिश्चंद्र सखाराम भाटवडेकर (सावे दादा) भी थे। फिल्म देखने के बाद उन्होंने इंग्लैंड से अपना कैमरा खरीदने का ऑर्डर किया। सावे दादा ने 1899 में मुंबई के हैंगिंग गार्डन में एक कुश्ती मैच की रिकॉर्डिंग की। प्रोसेसिंग के लिए उसकी रील को इंग्लैंड भेजना पड़ा। उसे किसी भारतीय द्वारा पहली फिल्म रिकॉर्डिंग माना जाता है।

आजादी से पहले और ठीक बाद का समय

विभाजन से पहले चार जगहों पर फिल्म स्टूडियो हुआ करते थे- मुंबई, कलकत्ता, मद्रास और लाहौर। कलकत्ता और मद्रास में तो ज्यादातर क्षेत्रीय फिल्में बनती थीं, लेकिन मुंबई और लाहौर हिंदी-उर्दू भाषाई (हिंदुस्तानी) फिल्मों के केंद्र थे। उत्तर और मध्य भारत में इनकी ऑडियंस भी काफी बड़ी थी। इसलिए मुंबई और लाहौर की फिल्म इंडस्ट्री के बीच गहरा संबंध बन गया था।1940 के दशक में के.एल. सहगल, पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद जैसे अभिनेता और मोहम्मद रफी, नूरजहां और शमशाद बेगम जैसे गायक-गायिका मुंबई आ गए थे। विनोद, श्याम सुंदर, गुलाम हैदर, फराज निजामी, खुर्शीद अनवर जैसे संगीत निर्देशक भी वहां आए थे। लगभग उसी समय कलकत्ता फिल्म इंडस्ट्री से भी कई बड़े निर्माता और कलाकार मुंबई आए। इनके अलावा फिल्म निर्माण से जुड़े टेक्नीशियन भी यहां काम की तलाश में आ गए।गिरिधर झा कहते हैं, “इस तरह मुंबई बड़े स्टार का हब बन गई। कोलकाता की फिल्मों पर बांग्ला भाषा वहां की संस्कृति का प्रभाव था। यही स्थिति मद्रास में बनने वाली फिल्मों की थी। लेकिन मुंबई की प्रकृति लंबे समय से कॉस्मोपॉलिटन रही है।” ऐसा शहर जहां अनेक भाषाएं और अनेक संस्कृतियां एक साथ पल-बढ़ सकती हैं। कोलकाता या मद्रास की फिल्मों को भारत के दूसरे हिस्सों में दर्शक कम ही मिलते थे, लेकिन हिंदी फिल्में न सिर्फ हिंदी भाषी बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी देखी जाती थीं। झा के अनुसार, “मुंबई राष्ट्रीय स्तर पर सबको जोड़ने वाले हिंदी सिनेमा का केंद्र बन गई।”

फिल्म इंडस्ट्री के विकास के लिए कलाकारों के साथ और भी अनेक चीजें चाहिए। स्टूडियो का इन्फ्रास्ट्रक्चर, पैसा लगाने के लिए प्रोडक्शन हाउस, सिनेमाटोग्राफर, एडिटर, साउंड इंजीनियर जैसे टेक्नीशियन। मुंबई में इसका पूरा इकोसिस्टम डेवलप हुआ। देश के किसी अन्य हिस्से में फिल्म इंडस्ट्री में ऐसा नहीं था। इसलिए कोलकाता और दक्षिण से भी कई बड़े फिल्म निर्माता और कलाकार यहां आए।

मराठी संस्कृति और रंगमंच का योगदान

मराठी थिएटर भारत की सबसे समृद्ध रंगमंच परंपराओं में एक माना जाता है। सिनेमा में मराठी रंगमंच का क्या योगदान रहा है, इस सवाल पर जाने-माने अभिनेता नाना पाटेकर कहते हैं, “रंगमंच से जो कलाकार सिनेमा में जाते हैं, वही उनका योगदान होता है। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी जैसे बड़े कलाकार रंगमंच से ही सिनेमा में आए।”करीब चार दशक से मराठी रंगमंच से जुड़े और मुंबई यूनिवर्सिटी में अकादमी ऑफ थियेटर आर्ट्स के डायरेक्टर योगेश सोमण का कहना है, “मराठी सिनेमा पर रंगमंच का प्रभाव बहुत ही नेचुरल है क्योंकि अनेक लेखक, निर्देशक और एक्टर मराठी सिनेमा में भी गए।” सोमण लिमिटेड मानुषकी, दृश्यम, दृश्यम 2, ऊरी द सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कई मशहूर फिल्मों में भी काम कर चुके हैं।

आर्थिक राजधानी होने का फायदा

फिल्म निर्माण के चार केंद्रों में से सबसे अधिक पैसा मुंबई में था। शुरुआती दिनों में मुंबई के कपास कारोबारियों ने भी फिल्मों में पैसा लगाया जो कॉटन फाइनेंस नाम से जाना जाता है। मुंबई के मिल मजदूरों के रूप में फिल्मों को ऑडियंस भी मिल रही थी। भारत की राजधानी कोलकाता से बदलकर (1911 में) दिल्ली हो गई, तो उससे कोलकाता का आकर्षण भी कम हो गया था। हालांकि बाद में वहां भी सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे बड़े फिल्मकार हुए।गिरिधर झा कहते हैं, “मुंबई को पैसे वालों की नगरी भी कहा जाता रहा है। आज की तरह मुंबई तब भी भारत की आर्थिक राजधानी थी। इसका फायदा फिल्म इंडस्ट्री को बहुत मिला। शुरुआती दौर में फिल्मों में पैसा लगाने वाले पारसी और सिंधी थे, जो मुंबई में ही थे। बाद में गुजराती फाइनेंसर भी यहां आए। मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री विकसित होने का यह एक बड़ा कारण रहा है।”

बड़े स्टूडियो का दौर

मुंबई में फिल्म निर्माण शुरू होने के कुछ समय बाद ही बड़े स्टूडियो का दौर शुरू हुआ तो हिमांशु राय ने पत्नी देविका रानी के साथ 1934 में बॉम्बे टॉकीज की स्थापना की। जर्मनी से डायरेक्टर फ्रेंज ऑस्टेन (Franz Osten) बुलाए गए जिनके निर्देशन में देविका रानी ने कई फिल्मों में काम किया।सोहराब मोदी ने भाई रुस्तम के साथ मिलकर 1936 में मिनर्वा मूवीटोन थियेटर की स्थापना की। उसी दौर में चंदूलाल शाह और गौहर कयूम मामाजीवाला ने रंजीत मूवीटोन की स्थापना की थी। वह अपने समय के सबसे बड़े स्टूडियो में एक था, जिसने 1929 में मूक फिल्मों से शुरुआत की थी।उन दिनों अशोक कुमार सुपरस्टार थे, वह भी मुंबई आ गए थे। उनके बहनोई शशधर मुखर्जी जैसे बड़े फिल्मकार मुंबई आए और 1943 में अशोक कुमार तथा अन्य के साथ मिलकर फिल्मिस्तान स्टूडियो और 1958 में फिल्मालय की स्थापना की। दरअसल, बंगाल से कई बड़े फिल्मकार मुंबई आए जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली।झा के अनुसार, “जहां सब रहेंगे वहीं टेक्नीशियन भी होंगे, वहीं स्टूडियो भी होंगे। उस दौर में अगर कोई चाहता कि किसी दूसरे शहर में जाकर फिल्म बना लें, तो उसे पूरा सेटअप नहीं मिलता। बाद के दिनों में भोजपुरी तथा उस इलाके की अन्य भाषाओं में जो फिल्में बनती थीं, उनमें भी पोस्ट प्रोडक्शन काम मुंबई में ही होता था। आज भी उन फिल्मों का 95% काम मुंबई में ही होता है क्योंकि संसाधन यहीं हैं। इस तरह मुंबई राष्ट्रीय सिनेमा की राजधानी बन गई।”वैसे देखा जाए तो मुंबई से पहले पुणे फिल्म के लिहाज से अधिक डेवलप था। पुणे महाराष्ट्र का सांस्कृतिक केंद्र रहा है। उन दिनों वहां कई बड़े स्टूडियो थे। देवानंद जैसे कलाकार भी ऑडिशन के लिए पुणे जाते थे। दिलीप कुमार जैसे बड़े अभिनेता वहां के स्टूडियो में काम करते थे।

लोकेशन का फायदा

मुंबई की लोकेशन भी अपने आप में एक कारण है। समुद्र तट पर बसा होने के कारण मुंबई ने पहले अंग्रेजों को आकर्षित किया और उसके बाद भारत के एलीट वर्ग को। यहां लंबे समय से कॉस्मोपॉलिटन कल्चर रहा है। पुर्तगालियों से मिलने के बाद अंग्रेजों ने मुंबई को काफी डेवलप किया था। मरीन लाइंस और विक्टोरिया रेलवे स्टेशन का बहुत क्रेज था। यहां 1903 में गेटवे ऑफ इंडिया के सामने ताज होटल बना। यहां एंग्लो इंडियन बड़ी संख्या में थे, जिससे पश्चिमी प्रभाव बहुत था।झा कहते हैं, “जिस दौर में 90% भारत में गांव वाली संस्कृति थी, लोगों में गरीबी थी, उस समय मुंबई काफी विकसित हो चुकी थी। उस दौर में किसी और राज्य में वैसी समृद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती थी। दिल्ली राजनीतिक केंद्र थी, लेकिन आजादी से पहले दिल्ली में फिल्म इंडस्ट्री का कुछ भी नहीं था।”आजादी के बाद के दौर में फिल्में काफी बिजनेस करने लगीं। अशोक कुमार, राज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद जैसे बड़े स्टार की फिल्में काफी पैसा कमाती थीं। पूरे देश में जैसे-जैसे हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता बढ़ती गई, मुंबई की स्थिति और मजबूत होती गई। 1970 के दशक में हॉलीवुड की तर्ज पर इसे बॉलीवुड कहा जाने लगा। झा के अनुसार, फिल्मों के जरिए बॉम्बे को रोमांटिसाइज भी किया गया। ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां… मुंबई मेरी जान’ गाना इसका उदाहरण है। एक तरह से लोगों के मस्तिष्क में यह बात बिठाई गई कि मुंबई माया नगरी है, अद्भुत शहर है। इन सबका भी असर हुआ और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री मुंबई की पहचान बन गई।लेकिन आज बॉलीवुड के सामने कुछ चुनौतियां भी खड़ी हो रही हैं। हाल के वर्षों में बाहुबली, पुष्पा- द राइज, केजीएफ, कल्कि जैसी फिल्में आईं। ये फिल्में बनीं तो दक्षिण में लेकिन हिंदी इलाकों में भी बड़ा कारोबार किया। कल्कि में तो कलाकार भी पैन-इंडिया हैं। अब देखना है कि बॉलीवुड इस चुनौती से कैसे निपटता है।

Friday, 21 July 2023

  1825 दिन में डेढ़ लाख महिलाओं से बलात्कार,

 पीएम ने क्यों किया राजस्थान और छत्तीसगढ़ का जिक्र

एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान में 2021 के दौरान 6337 रेप के मामले दर्ज हुए थे। रेप का यह आंकड़ा, किसी भी राज्य में सर्वाधिक रहा है। छत्तीसगढ़ में रेप की 1093 घटनाएं हुई थीं। मध्यप्रदेश में 2947, यूपी में 2845 और महाराष्ट्र में यह संख्या 2496 रही है.मणिपुर में यौन हिंसा का वीडियो वायरल होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, मेरा हृदय आज पीड़ा से भरा है, क्रोध से भरा है। मणिपुर की घटना किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मसार करने वाली घटना है। पाप करने वाले कितने हैं और कौन हैं, ये अपनी जगह है। ये बेइज्जती पूरे देश की हो रही है। 140 करोड़ भारतीयों को शर्मसार होना पड़ा है। हालांकि इस दौरान पीएम मोदी ने सभी मुख्यमंत्रियों से महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराध के प्रति कठोर कदम उठाने की अपील करते हुए कहा, घटना चाहे राजस्थान की हो, छत्तीसगढ़ की हो या फिर मणिपुर की हो, कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान में 2021 के दौरान 6337 रेप के मामले दर्ज हुए थे। रेप का यह आंकड़ा, किसी भी राज्य में सर्वाधिक रहा है। छत्तीसगढ़ में रेप की 1093 घटनाएं हुई थीं। मध्यप्रदेश में 2947, यूपी में 2845 और महाराष्ट्र में यह संख्या 2496 रही है। देश में पांच वर्ष यानी 1825 दिनों में डेढ़ लाख महिलाओं से बलात्कार हुआ है। यानी रोजाना 87 महिलाओं की इज्जत लूटी जा रही है।

पांच साल में किस राज्य में सर्वाधिक बलात्कार के मामले

एनसीआरबी की रिपोर्ट 2021 के मुताबिक, बलात्कार की घटना वाले टॉप-10 राज्यों में छत्तीसगढ़ शामिल नहीं है। साल 2020 की रिपोर्ट में भी छत्तीसगढ़, टॉप-10 स्टेट में शामिल नहीं है। हालांकि राजस्थान, 2021 और 2020 में रेप की घटनाओं में टॉप पर रहा है। 2019 के दौरान भी राजस्थान में ही बलात्कार के सर्वाधिक 5997 मामले सामने आए थे। साल 2018 में राजस्थान, टॉप पर नहीं था। उस वक्त मध्यप्रदेश, बलात्कार के 5433 मामलों के साथ टॉप पर था। राजस्थान का नंबर दूसरा था। साल 2017 में भी मध्यप्रदेश बलात्कार के मामलों में टॉप पर रहा। दूसरा नंबर उत्तर प्रदेश का था। तीसरे स्थान पर राजस्थान था।साल 2021 में देश में रेप के कुल 31677 मामले सामने आए थे। वर्ष 2020 में बलात्कार की 28046 घटनाएं हुई थीं। अगर पीड़ितों की संख्या देखें, तो वह आंकड़ा 28153 रहा है। साल 2019 में रेप के 32033 मामले देखने को मिले थे। इनमें पीड़ित महिलाओं की संख्या 32260 रही है। वर्ष 2018 में रेप के कुल 33356 मामले सामने आए थे। पीड़ितों की संख्या 33977 रही है। साल 2017 के दौरान बलात्कार के 32559 केस देखने को मिले थे। इन मामलों में पीड़ितों की संख्या 33658 रही है। विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पांच साल के दौरान 159048 से अधिक रेप के मामले सामने आए हैं।

2021 में टॉप 10 राज्यों में रेप के मामले

राजस्थान      6337

मध्यप्रदेश      2947

उत्तर प्रदेश    2845

महाराष्ट्र      2496

असम        1733

हरियाणा      1716

ओडिशा      1456

झारखंड      1425

आंध्रप्रदेश      1188

पश्चिम बंगाल    1123

 2020 में टॉप 10 राज्यों में रेप के मामले

राजस्थान      5310

मध्यप्रदेश      2339

उत्तर प्रदेश    2769

महाराष्ट्र      2061

असम        1657

हरियाणा      1373

ओडिशा      1211 

झारखंड      1321

आंध्रप्रदेश      1095

पश्चिम बंगाल    1128

 2019 में टॉप 10 राज्यों में रेप के मामले

राजस्थान      5997

उत्तर प्रदेश  3065

मध्यप्रदेश    2485

महाराष्ट्र      2299

केरल        2023

असम        1773

हरियाणा    1480

झारखंड      1416

ओडिशा      1382

आंध्रप्रदेश    1086

 


2018 में टॉप 10 राज्यों में रेप के मामले

मध्यप्रदेश      5433

राजस्थान 4335

उत्तर प्रदेश 3946

महाराष्ट्र 2142

छत्तीसगढ़ 2091  

केरल 1945

असम 1648

हरियाणा 1296  

झारखंड 1090

पश्चिम बंगाल  1069

 


2017 में टॉप 10 राज्यों में रेप के मामले

मध्यप्रदेश      5562

उत्तर प्रदेश    4246

राजस्थान      3305

ओडिशा      2070

केरल        2003

महाराष्ट्र      1933

छत्तीसगढ़    1908

असम        1772

हरियाणा      1099

पश्चिम बंगाल  1084

Thursday, 15 December 2022

 विलुप्त हो रहे प्रकृति के प्रहरी

प्रकृति के प्रहरी माने जाने वाले जीव आज मनुष्य की गलतियों का खामियाजा अपने अस्तित्व को गंवाकर भुगत 

रहे हैं। दुनियाभर में फैली खूबसूरत और खतरनाक जीवों की विभिन्न प्रजातियों का जीवन संकट में है। तमाम 
शोधों में पाया गया है कि इनके विलु’ होने का कारण ग्लोबल वार्मिंग, बदलती जीवनश्ौली, कीटनाशक, दवाइयों 
व केमिकल्स का प्रयोग इनके जीवन को प्रभावित कर रहा है। 5 अक्टूबर 1948 को स्थापित की गई आईयूसीएन 
(इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑन नेचर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में स्तनपायी जीवों की 397 
प्रजातियां, पक्षियों की 1232, सरीसृपों की 46०, मछलियों की 2546 और कीट-पतंगों की 59, 353 प्रजातियां पाई 
जाती हैं। इसके अलावा भारत में तकरीबन 18,664 तरह के पेड़-पौधों की शरण स्थली माना गया है।
लेकिन अब इन पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। मौजूदा समय में देश में 84 राष्ट्रीय उद्यान और 447 
अभ्यारण्य जीवों को संरक्षित करने के लिए बनाउ गए हैं। जानते हैं कुछ प्रमुख विलुप्त जीवों के बारे में।
बाघ - 
भारत का राष्ट्रीय पशु है। इसकी आठ प्रजातियों में रॉयल बंगाल टाइगर, देश के पश्चिमी हिस्से में पाया जाने 
वाला सबसे खतरनाक जीव माना जाता है। किसी समय अपनी चहलकदमी से पूरा जंगल हिलाने वाले इस वन्य 
जीव का अस्तित्व हिल चुका है। इस खूबसूरत जीव का जीवन खतरे में है। भारत में यह सबसे ज्यादा संकटग्रस्त 
प्रजातियों में गिना जाता है। देश में अब केवल 1411 बाघ ही बचे हैं। हालांकि अब इनकी संख्या में इजाफा हुआ 
है।
एशियाई शेर - 
एशियाई शेर प्रमुख रूप से गुजरात के गिर वनों में पाए जाते हैं। लेकिन अब इनकी संख्या में लगातार कमी हो 
रही है। गिर वन में अब करीब 411 शेर बचे हैं। पर्यावरण के विष्ौला होने व जल प्रदूषण और शिकार की वजह 
से यह खूबसूरत जीव अपने अस्तित्व को लेकर संकट में है।
गिद्ध- यह प्रमुख रूप से मृत-पशु के मांस पर निर्भर रहने वाला जीव है। इस जीव को प्रकृति का सफाईकमीã भी 
कहा जाता है। इसके विलुप्त होने का प्रमुख कारण पशुओं में प्रयोग की जाने वाली कई तरह की दवाओं को माना 
जा रहा है। देश में इनकी संख्या न के बराबर है। इस जीव को पूर्ण रूप से लुप्त प्राय जीवों की श्रेणी में रखा गया 
है।
वेस्टर्न ट्रैगोपन- 
यह रंगबिरंगी और खूबसूरती पक्षी हिमालय के ठंडे और जंगली इलाकों में पाया जाता है। यह तीतर की दुर्लभ 
प्रजाति है, जिसका जीवन समाप्ति की ओर है। इसके लुप्त होने का कारण जलवायु परिवर्तन को माना जा रहा 
है।
स्नो लेपर्ड- हिमालयन तेंदुआ यह अत्यंत चंचल और फु र्तीला, बिल्ली की प्रजाति का प्राणी है। यह हिमालय की 
ऊचाईयों में ठंडे-जंगली इलाकों में पाया जाता है। इसके अंगों की कीमत अतंर्राष्ट्रीय बाजार में करोणों होने के 
कारण इसका चोरी छिपे शिकार किया जाता है, जिस कारण यह भी विलुप्त जीवों की श्रेणी में शामिल है।
रेड पांडा - 
यह अत्यंत खूबसूरत स्तनपायी प्राणी पूर्वी हिमालय के जंगलों में पाया जाता है। जंगलों के लगातार कटने के 
कारण इसके निवास क्ष्ोत्र की कमी के कारण यह अपने जीवन को लेकर संकट में है।
सुनहरा लंगूर। देश में यंू तो बंदरों की कई प्रजातियां पाई जाती हैं। इन्हीं में से एक है सुनहरा लंगूर। इसका 
निवास क्ष्ोत्र ब्रह्मपुत्र नदी के आसपास स्थित वन हैं। वनों के कटाव के चलते इनकी संख्या तेजी से घट रही है।
इंडियन एलीफैंट- भारतीय हाथी को राजाओं की सवारी माना गया है। इसलिए यह राष्ट्रीय विरासत पशुओं की 
श्रेणी में सबसे आगे है। हाथी दांत के लिये चोरी छिपे शिकार और निवास क्ष्ोत्र के नष्ट होने के कारण यह जीव 
अपने जीवन को लेकर संकटग्रस्त।
इंडियन वन हार्न रीनो- 
एक सींग वाला गेंडा अपनी प्रजातियों में सबसे हिंसक माना जाता है। इसका निवास क्ष्ोत्र गंगा के मैदानी-जंगली 
इलाके हैं। हालांकि अब यह सिर्फ चिड़ियाघरों में ही देखे जाते हैं। एक सींग की वजह से इसके अत्याधिक शिकार 
और प्राकृतिक परिवर्तन के कारण ये समाप्ति की ओर हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में अब सिर्फ 21०० गैंडे ही 
बचे हैं।
स्वैंप डीर- 
यह हिरण प्रमुख रूप से घने व दलदली इलाकों में रहने के कारण प्रसिद्ध है। यह प्रमुख तौर से भारत और नेपाल 
में पाया जाता है। बदलते पर्यावरण और घटते निवास क्ष्ोत्रों की वजह से इसका जीवन संकट में है।
ओलिव राइडल टर्टल- यह अपनी प्रजाति का अनोखा और सबसे छोटा क छुआ है। यह भारत के पूर्वी तटों प्रमुख 
रूप से ओड़िशा तट पर भारी संख्या में पाए जाते हैं और प्रजनन करते हैं। प्रजनन स्थलों की संख्या में कमी और 
समुद्री जल के प्रदूषति होने के कारण इनकी आबादी खत्म हो रही है।
इसके अलावा आर्इयूसीएन की रेड लिस्ट में कई और जीव प्रजातियों को शामिल किया गया है। ब्लैक नेक्ड क्रेन, 
डोडो, यात्री कबूतर, टाइरानोसारस, कैरेबियन मॉन्क सील, वन कछुए, ब्राजील के मरगैनसर, घडिèयाल, नीला व्हेल, 
विशालकाय पांडा, बर्फीला तेंदुआ, क्राउंड सालिटरी ईगल, ब्लू-बिल्ड डक, सॉलिटरी ईगल, स्माल-क्लाड औटर, मेंड 
वुल्फ, चित्तीदार मैना, गौरैया आदि प्रमुख हैं।
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Sunday, 12 June 2022

 जब भगत सिंह की मां की गोद में सिर रख रोए थे मनोज कुमार

हर इंसान को उसकी ज़िंदगी में एक बार किस्मत का इशारा ज़रूर मिलता है. ये इशारा बताता है कि आपको किस रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए. हां, ये बात ज़रूर है कि किस्मत का ये इशारा कुछ ही लोग समझ पाते हैं और जो समझ जाते हैं उनका नाम इतिहास में अमर हो जाता है. ऐसा ही एक इशारा मिला था पाकिस्तान में जन्में एक बच्चे को. जिसका नाम था हरिकिशन गिरी गोस्वामी. अधिकांश लोग इस नाम से वाक़िफ़ नहीं होंगे, क्योंकि ये नाम मिटा दिया गया. इसकी जगह, जो नया नाम सामने आया उसे लोग मनोज कुमार के नाम से जानते हैं. वही मनोज कुमार, जिन्होंने देशभक्ति से लबरेज़ कई शानदार फ़िल्मों में अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीता. "है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूं. भारत का रहनेवाला हूं. भारत की बात सुनाता हूं..." आज भी जब कभी इस गाने की धुन बजती है, लोगों की आंखों के सामने मनोज कुमार का चेहरा आ ही जाता है. 

हरिकिशन गिरी गोस्वामी से मनोज कुमार बनने की कहानी

मनोज कुमार का जन्म 24 जुलाई 1937 को पाकिस्तान के एबटाबाद (तब भारत में) में जन्म हुआ था. उनके बचपन का नाम हरिकिशन गिरी गोस्वामी था. वह मात्र 10 साल के थे. तभी उन्हें अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी. अपने एक इंटरव्यू के दौरान मनोज कुमार ने बताया था कि वे रिफ्यूजी कैंप में भी रहे और इस दौरान उन्हें काफ़ी मुश्किल हालातों का सामना करना पड़ा था. इसी दौरान उनका छोटा भाई भी चल बसा. इस घटना के बाद से हरि बहुत उग्र हो गये थे. मारपीट शुरू कर दी, पुलिस के डंडे तक खाने पड़े थे. हरि की इन्हीं हरकतों से तंग आ कर इनके पिता ने इन्हें मारपीट ना करने की कासम दिलाई थी. बाद में उनका परिवार दिल्ली आ कर रहने लगा. हरि ने अपनी पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पूरी की.मनोज कुमार की बचपन से ही फिल्मों में रुचि रही. उनकी इसी रुचि ने उनकी ज़िंदगी को एक नई दिशा भी दी. उस समय के उभरते सितारे दिलिप कुमार की शबनम में मनोज कुमार उनके किरदार से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना नाम मनोज रख लिया. ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्म में दिलिप साहब द्वार निभाए किरदार का नाम भी मनोज था. हरि ने सोच लिया था कि वह जब कभी अभिनेता बनेंगे तब अपना नाम मनोज कुमार ही रखेंगे. तब उन्हें भी कहां पता था कि उनका नाम मनोज कुमार तक ही सिमित नहीं रहेगा. बल्कि अपनी देशभक्ति से लबरेज़ फिल्मों के लिए वह भारत कुमार के नाम से भी जाने जाएंगे. मनोज कुमार ने अपनी सौम्य और सशक्त अभिनय शैली से एक अमिट पहचान बनाई है. फ़िल्मों में उनके शानदार अभिनय के साथ-साथ एक बात यह खास है कि ज्यादातर फिल्मों में उनके किरदार का नाम भारत था. यही कारण था कि उन्हें भारत कुमार के नाम से नई पहचान मिली. ग्रैजुएशन पूरा करने के बाद अपना भाग्य आज़माने वो बम्बई चले गये.

बड़ी मुश्किल से मिली थी मनोज कुमार को पहली फिल्म

निर्देशक लेखराज भाखरी मनोज कुमार के बुआ के लड़के थे. एक बार वो किसी काम से दिल्ली आए. उन्होंने मनोज कुमार की तारीफ़ करते हुए कहा कि तुम तो बिल्कुल हीरो की तरह लगते हो. अब मनोज कुमार तो फिल्मों में अभिनेता बनने के सपने पहले ही सजाए हुए थे. इस पर मनोज ने भी कह दिया "तो बना दो हीरो." लेखराज लौट गये बम्बई. कुछ समय बाद अपनी किस्मत आज़माने मनोज भी बम्बई पहुंच गए. मनोज के सपने तो बड़े थे मगर उन्हें इस बात के बारे में मालूम नहीं था कि बम्बई पहले इंसान को परखती है फिर मौका देती है. मनोज 6 महीने खाली बैठे रहे. इस इंतज़ार से तंग आ कर एक दिन पहुंच गए भाखरी साहब के घर और कहने लगे कि और कितना इंतज़ार करना होगा फिल्मों में आने के लिए. इस पर भाखरी साहब का जवाब लाजवाब कर देने वाला था.उन्होंने मनोज को ऊपर से नीचे तक देखा और बोले "अभी तो तुम्हारा एक जूता तक नहीं घिसा, लोगों की यहां जिंदगियां घिस जाती हैं." मनोज कुमार इस बात पर एक दम चुप हो गए. बाद में भाखरी साहब ने मनोज कुमार को अपनी फिल्म फैशन में एक छोटा सा रोल दिया. कहने को तो उन्होंने मनोज से कहा था कि तुम हीरो लगते हो लेकिन रोल दिया एक बूढ़े भिखारी का. मगर जो भी हो इसी रोल से मनोज कुमार की हिंदी सिनेमा जगत में एन्ट्री हुई. इसी तरह मनोज वर्ष 1957 से 1962 तक फिल्म इंडस्ट्री मे अपनी जगह बनाने के लिये संघर्ष करते रहे लेकिन एक बात ये अच्छी रही कि वे ना कभी निराश हुए और ना ही दोबारा पीछे मुड़ कर देखा. फिल्म ‘फैशन’ के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए. ‘कांच की गुड़िया’ (1960) में मनोज कुमार को पहली बार मुख्य भूमिका में लिया गया था. 1960 के दशक में उनकी रोमांटिक फिल्मों में ‘हरियाली और रास्ता’, ‘दो बदन’ के अलावा ‘हनीमून’, ‘अपना बना के देखो’, ‘नकली नवाब’, ‘पत्थर के सनम’, ‘साजन’, ‘सावन की घटा’ और इनके अलावा उन्होंने ‘अपने हुए पराए’, ‘पहचान’ ‘आदमी’, ‘शादी’, ‘गृहस्थी’ और ‘गुमनाम’, ‘वो कौन थी?’ जैसी फिल्मों में काम किया.
वैसे तो एक रोमांटिक हीरो के तौर पर मनोज साहब फिल्म जगत में अच्छी पहचान बना रहे थे, लेकिन  फिर भी कुछ कमी तो थी. उन्हें कुछ अलग करना था. ये अलग तब हुआ जब मनोज कुमार को एस राम शर्मा द्वार निर्देशित फिल्म शहीद में काम करने का मौका मिला. शहीद भगत सिंह के जीवन पर आधारित ये फिल्म मनोज कुमार के जीवन का वो मोड़ साबित हुई जहां से दर्शकों के लिए उनकी छवि ही बदल गई. इसी फिल्म के सिलसिले में मनोज कुमार शहीद भगत सिंह की मां और उनके भाइयों से भी मिले थे. मनोज कुमार को शहीद फिल्म में शहीद भगत सिंह का किरदार निभाना था. जब फिल्म पर काम शुरू हुआ तब मनोज कुमार और उनकी टीम चंडीगढ़ में थी. उन्हें पता चल कि भगत सिंह की माता जी को इसी शहर के एक अस्पताल में भर्ती किया गया है.इसकेबाद मनोज साहब ने शहीद भगत की मां से मिलने की इच्छा जताई और अस्पताल पहुंच गये. यहीं इनकी मुलाकत शहीद भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त से भी हुई. मनोज कुमार के लिए उस मुलाकत के दौरान दो बार ऐसा अवसर आया जिसे वह आज भी अपना सौभाग्य मानते हैं. पहला सुखद अवसर तब आया, जब शहीद भगत सिंह के भाई उन्हें मां के पास ले गए. उन्होंने मनोज साहब को मां से मिलवाते हुए कहा "मां ये वीरे की तरह नहीं दिखते ?" इस पर मां ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया "काफ़ी हद तक." दूसरा अवसर तब आया जब मनोज कुमार शहीद भगत सिंह की मां की गोद में सर रख कर रो पड़े. इन दोनों मौकों के लिए मनोज साहब आज भी खुद को सौभाग्यशाली मानते हैं. इस बात का जिक्र मनोज साहब ने अपने एक लेख में किया है जो उन्होंने 2002 में लिखा था.

तत्कालीन PM ने मनोज कुमार से क्या आग्रह किया था?

ये सिनेमा का वो दौर था, जब पर्दे पर देशभक्ति फिल्मों की कुछ खास चहल पहल नहीं थी. फिल्म बनाने वालों को शायद लगता हो कि देशभक्ति फिल्मों से वे कुछ ज़्यादा नहीं कमा पाएंगे. लेकिन मनोज कुमार ने उनकी इस सोच को बदल दिया. उन्होंने देश प्रेम की भावनाओं पर केंद्रित एक के बाद एक बेहतरीन फिल्में बनाईं और लोगों का बेशुमार प्यार बटोरा. ‘शहीद’, ‘उपकार’, पूरब और पश्चिम’ से शुरू हुआ उनका सफर फिल्म ‘क्रांति’ तक लगातार जारी रहा. उनकी फिल्मों ने आम दर्शकों में देश प्रेम का ऐसा जज़्बा जगाया कि देशभक्ति को केंद्र में रखकर और भी फ़िल्मकार फिल्में बनाने लगे. मनोज कुमार के इस देश प्रेम से भरे कदम को केवल उस समय के दर्शकों ने ही बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी खूब सराहा. जब मनोज कुमार की फिल्म शहीद पर्दे पर आई उस समय देश में जंग का माहौल था. इसी बीच इस फिल्म को लाल बहादुर शास्त्री ने भी देखा. 1965 के भारत-पाक युद्ध समाप्त होने के बाद उन्होंने मनोज साहब से ये आग्रह किया कि वह जय जवान, जय किसान के नारे को ध्यान में रखते हुए भी कोई फिल्म बनाएं. जो उन लोगों के लिए एक सीख हो जो अपनी ज़मीन और खेती छोड़ कर दूर देशों में जा बसे हैं. प्रधानमंत्री के इस आग्रह के बाद मनोज साहब दिल्ली से मुंबई के लिए रेल यात्रा कर रहे थे. आपको जान कर हैरानी होगी कि उन्होंने इस रेल यात्रा के दौरान ही उपकार फिल्म की कहानी लिख दी. इसे 24 घंटे का समय लगा. और फिर जल्द से जल्द फिल्म पर काम शुरू हो गया. 1967 में ये फिल्म रिलीज़ हुई लेकिन अफसोस कि इससे पहले ही शास्त्री जी का निधन हो चुका था.  

बुरे वक्त में अमिताभ बच्चन का सहारा बने थे मनोज कुमार

कहते हैं अगर मनोज कुमार नहीं होते तो आज हमारे बीच मेगास्टार अमिताभ बच्चन का भी कोई अस्तित्व ना बचा होता. मनोज कुमार सिनेमा जगत की मल्टी टैलेंटेड हस्ती थे. अभिनय से शुरू हुआ उनका सफर निर्देशन, फिल्मों की पटकथा कथा लेखन, प्रोडक्शन, गीत लेखन जैसे कई महत्वपूर्ण पड़ाव से हो कर गुज़रा जिससे मनोज साहब ने अपनी एक नई पहचान भी बनाई. 

मनोज साहब ने शोर, उपकार, पूरब पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान जैसी फिल्मों का निर्देशन किया. इसी दौर में अमिताभ बच्चन कोशिशें कर कर के हार चुके थे. वह अब अपने माता पिता के पास दिल्ली लौटने वाले थे. यह बात मनोज साहब को पता लगी. वह नहीं चाहते थे कि बच्चन साहब मुंबई छोड़ कर जाएं. उन्हीं दिनों मनोज साहब अपनी फिल्म रोटी कपड़ा और मकान को बनाने की तैयारियों में जुटे थे. उन्होंने बच्चन साहब को इस फिल्म में एक रोल ऑफ़र करते हुए उन्हें रोक लिया. उसके बाद बच्चन साहब के साथ क्या हुआ ये तो आज हम सब जानते हैं. वैसे तो मनोज कुमार बेहद ही साफ छवि के लिए जाने जाते हैं मगर फिर भी उन्हें लेकर कुछ एक विवाद हो ही गये. हालांकि, ये कोई इतनी बड़ी बात नहीं फिर भी विवाद तो विवाद है. स्वर्गीय राज कपूर मेरा नाम जोकर फिल्म में मनोज कुमार की छोटी सी भूमिका चाहते थे. इसी संबंध में एक बार उन्होंने मनोज साहब को फोन लगाया था. मगर फोन पर राज कपूर के साथ बहुत रूखे ढंग से बात की गई. दोनों अच्छे दोस्त थे, बावजूद इसके राज कपूर को लगने लगा जैसे मनोज उनसे दूर भाग रहे हैं. जब ये बात मनोज साहब को पता चली तो उन्हें हैरानी हुई क्योंकि उन्होंने राज कपूर से बात ही नहीं की थी. इसके बाद दोनों मिले और मनोज साहब ने राज कपूर को ये कहा कि उनके साथ काम करना एक कर्मयोगी के साथ काम करने जैसा है. इस बात पर राज कपूर भावुक होकर मनोज कुमार की गोद में सर रख कर रोने लगे थे. इसके अलावा एक विवाद तब खड़ा हुआ, जब फिल्म ओम शांति ओम में शाहरुख खान ने फिल्म में एक ऐसा सीन रखा जिसमें मनोज कुमार साहब की नकल की गई थी. मनोज साहब इससे काफ़ी नाराज़ हुए लेकिन बाद में शाहरुख खान ने उनसे माफी मांग ली. मनोज साहब ने भी उन्हें माफ कर दिया. 

पटकथा लेखक के रूप में मात्र ₹11 लेने वाले मनोज कुमार 

फिल्मों के पटकथा लेखक के रूप में मात्र 11 रुपए फीस लेने वाले मनोज कुमार अपने सिने करियर में सात फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किये गये हैं. इन सबके साथ ही फिल्म के क्षेत्र में मनोज के उल्लेखनीय योगदान को देखते हुये उन्हें वर्ष 2002 में पद्मश्री पुरस्कार, वर्ष 2008 में स्टार स्क्रीन लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार और वर्ष 2016 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है. 

Saturday, 23 October 2021

  सच्ची दिवाली तभी मनेगी ..

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दीपावली खुशियों का त्योहार है वैसे तो मुख्यत: यह धन तथा ऐश्वर्य प्रदाता विष्णुप्रिया महालक्ष्मी की आराधना तथा पूजा का पर्व है, क्योंकि ऐसी  मान्यता है कि इस रात देवी लक्ष्मी को प्रसन्न  करने से उनकी कृपा से मनुष्य को धन-संपदा तथा यश-ऐश्वर्य को प्राप्ती होती है। दीपावली मनाने के पीछे अनेक कथाएं भी प्रचलित हैं उनमें से दो मुख्य हैं- पहले मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम द्वारा लंकापति रावण का वध करने के पश्चात अयोध्या लौटने पर राम के आगमन तथा रावण वध की खुशी में अयोध्यावासियों द्बारा दीप जलाकर खुशी व्यक्ति करने की है तथा दूसरी मात्रवों और देवताओं के नाक सें दम कर देवे वाले दुर्दात तथा अनाचारी दानव नरकासुर का भगवान श्रीकृष्ण द्बारा अंत करके उसके कारागार से १६ हजार कन्याओं को मुक्त काराने पर लागों द्बारा खुशियां मनाने से संबंधित। बेशक भगवान श्री राम ने अधर्मी तथा अहंकारी रावण  और श्रीकृष्ण अनाचार तथा अत्याचार के प्रतीक नरकासुर जैसे महाबली राक्षसों और दानवों का वध सदियों पहले ही कर दिया था लेकिन आज भीषण मंहगाई और भ्रष्टाचार रूपी रावण तथा पूरे विश्व में बढ़ते आतंकवाद और अनाचार तथा अनैतिक आचरण रूपी नरकासुर ने जनता जनार्दन का जीना दुश्वार कर दिया ऐसे में दिवाली  जैसे भारत के सबसे बड़े राष्ट्रीय महापर्व को सार्थक पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। आज सामान्यजनों को अपने परिवारों का भरण- पोषण करना असंभव लगने लगा है जिसके कारण अनगिनत परिवार आत्महत्या का सहारा लेने के लिए बाध्य हो चुके है। और न जाने और कितने परिवार महंगाई और भ्रष्टाचार को भेंट चड़ने वाले हैं। न जाने कितने युवक बेरोजगारों को हताश में आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। या अपराध को ओर उन्मुख हो रहे हैं। न जाने कितने किसान बड़ते साहूकारों के कर्ज के बोक्ष और प्रकृति के प्रकोप के कारण और फसलों के चौपट हो जाने के कारण प्रतिवर्ष कीटनाशक दवाइयां को पीकर कीडे-मकोड़ों की भांति मरने को मजबूर हो रहे है और राज्य सरकारें तथा केन्द्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं। इन दैत्यों पर अंकुश लगाने को जिम्मेदारी जिन लोगों पर है, वे सभी सत्ता के मद में चूर ऐशो आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं। जनता-जनार्दन के अर्तनाद से जैसे उनका कोई सरोकार हैं। जो लोग महंगाई और भ्रष्टचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने की जुर्रत कर रहे हैं, उन्हें नाना प्रकार से प्रताडित किया जा रहा है। महात्मा गांधो ने भारत में फिर से रामराज्य लाने का सपना देखा था, लेकिन उनका नाम लेकर सत्ता हासिल करने वालों ने रावण राज लाने में कोई कसर नही छोड़ी। आज कितनी ही द्रोपदियों का चीर- हरण सरेआम सडकों पर छुट्टे सांड की तरह घूम रहे दुशासन और सपेसदपोश नेता तथा अधिकारी धूम रहे हैं। सत्ता के मद में चूर राजनेता न जाने कितनी भंवरी देवियों को अस्मत से खेल रहे हैं और जी भर जाने या पोल खुल जाने के डर से उनका कत्ल करवा रहे हैं। द्वापर में ही दुशासन से द्रोपती की लाज बचाने के लिए श्रीकृष्ण आगे आये लेकिन आज के युग में कोई कृष्ण नजर नहीं आता। घर हो या बाजार या दफ्तर या अन्य कोई ठिकाना नारी को अस्मत आज महफूज नही रह गयी। क्या इस हालातों में दीवाली मनाने को कोई सार्थकता नजर नहीं आती है। सच्ची दीपावाली उस दिन मनेगी,जिस दिन भारत सहित पूरे विश्व से महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद. बेरोजगारी, अनाचार अनैतिक आचरण रूपी रावण तथा नरकासुर का अंत होगा। जिस दिन नारी आधी रात को भी बिना दुशासनों के भय के सडकों पर बेखौफ निर्भय होकर उन्मुक्त विचरण कर सकेगी, कोई किसान साहूकार के कर्ज के बोक्ष तले दबकर आत्महत्या करने को मजबूर नही होगा। कोई युवक बेरोजगारी से कुंठित होकर आत्महत्या या अपराध की ओर कदम नहीं  बढायेगा, कोई परिवार महंगाई, बेरोजगारों के कारण आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होगा कोई युवती दहेज को बलि नहीं चढेगी या किसी युवती की बरात दहेज के कारण दरवाजे से वापस नहीं लौटेगी वह दिन भारत में सच्चे मायनों में सच्चे मायनों में दिवाली जैसा होगा और तभी दिवाली मनना सार्थक होगा।

Monday, 28 June 2021


 डायबिटीज अब उम्र, देश व परिस्थिति की सीमाओं को लांघ चुका है

वैसे तो जून में कई विश्वदिवसों का आयोजन किया जाता है। जून का तीसरे और चैथे सप्ताह में तो प्राय: हर दिन ही किसी न किसी विश्व दिवस का आयोजन किया जाता है। और आज की भागदौड़ भरे मानव जीवन में जिसका मनाया जाना बेहद जरूरी भी है। डायबिटीज के रोग के बारे में लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से मधुमेह जागृति दिवस मनाया जाता है।  भारत को विश्व मधुमेह की राजधानी कहा जाता है। इस समय भारत में लगभग पांच करोड़ मधुमेह रोगी हैं। अर्थात तब हर पांचवां मधुमेह रोगी भारतीय होगा। मधुमेह वृध्दि की दर चिंताजनक है। विश्व भर में इस रोग के निवारण में प्रति वर्ष 250 से 400 मिलियन डॉलर खर्च हो जाता है। हर साल लगभग 50 लाख लोग नेत्रों की ज्योति खो देते हैं और दस लाख लोग अपने पैर गंवा बैठते है। मधुमेह के कारण प्रति मिनट 6 मौते होती हैं और गुर्दे नाकाम होने का यह प्रमुख कारण है। आज विश्व के लगभग 95 प्रतिशत रोगी टाईप 2 मधुमेह से पीड़ित है। कोरोना की तीसरी लहर साधारण भाषा में इसे शुगर या शक्कर की बीमारी कहते हैं। यहां शक्कर से आशय हमारे शरीर में व्याप्त ग्लूकोज से है। रक्त ग्लूकोज शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है और काबोर्हाइड्रेट आंतों में पहुंचकर ग्लूकोज में परिवर्तित हो जाता है फिर अवशोषित होकर रक्त में पहुंचता है। रक्त से कोशिकाओं के भीतर उसका प्रवेश होता है और इसके लिए इंसुलिन की आवश्यकता होती है। इंसुलिन एक हार्मोन है जो शरीर के पेंक्रियाज (अग्नाशय)नामक ग्रंथि से निकलता है। इंसुलिन की कमी से रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है जोकि मूत्र के साथ बाहर निकलता है और मधुमेह रोग का सूचक माना जाता है। मतलब यह कि मधुमेह इंसुलिन की कमी से होता है न कि किसी अन्य कारण से। और मधुमेह की चिकित्सा का उद्देश्य है रक्त में शुगर की मात्रा को सामान्य रखना, अन्यथा शरीर के अंगों-नाक, कान, गला, आंख, दांत और पैरों को क्षति पहुंचती है।  कोरोना से स्वस्थ को होने के बाद भी रह सकता है और यह शिकायत मधुमेह के आंकड़े चैंकाने वाले हैं और हमें सोचना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है। शोध बताते हैं कि भारत में आनुवांशिक तौर पर मधुमेह की आशंका बलवती है। इसका संबंध किसी विशेष आयु,वर्ग या लिंग से नहीं है बल्कि आधुनिक जीवन शैली ने ही युवाओं और छोटे बच्चों तक को इस रोग से पीड़ित कर दिया है। आजकल होटलों और फास्ट फूड़ सेंटर्स में जाने का चलन बढ़ा है। लोग आवश्यकता से अधिक कैलोरी का भोजन करके मोटापे का शिकार हो रहे हैं जबकि उनकी दिनचर्या में व्यायाम और शारीरिक श्रम का अभाव है। युवाओं और बच्चों में यह प्रवृत्ति आम है। इस कारण कम उम्र के मधुमेह रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। डायबिटीज अब उम्र, देश व परिस्थिति की सीमाओं को लांघ चुका है। इसके मरीजों का तेजी से बढ़ता आंकड़ा दुनियाभर में चिंता का विषय बन चुका है।  कोरोना वायरस उत्पत्ति की जांच में अधिक पारदर्शिता की आवश्यकता भारत अपनी युवा आबादी की शिराओं में धीरे-धीरे मीठा जहर घुलने की आशंका विशेषज्ञों की नींद उड़ाए हुए है। पश्चिम में अधिकतर लोगों को उम्र के छठवें दशक में मधुमेह होता है, जबकि भारत में 30 से 45 वर्ष की आयु में ही इस बीमारी की दर सबसे अधिक है। टाइप वन मधुमेह प्राय: बचपन या युवावस्था में होता है जिसे टाइप वन मधुमेह कहते हैं। इसमें अग्नाशय ग्रंथि से बहुत कम मात्रा में इंसुलिन उत्पन्न होती है या बिल्कुल उत्पन्न नहीं होती। इसके रोगी को नियमित रूप से रक्त ग्लूकोज के नियंत्रण के अलावा जीवित रहने के लिए इंसुलिन लेनी पड़ती है। टाइप-2 मधुमेही अधिक आयु के लोगों में होता है। यह बीमारी तब होती है जब शरीर के ऊतक इंसुलिन की सामान्य या अधिक मात्रा के लिए बहुत संवेदनशील या प्रतिरोधक होते हैं। इस स्थिति में अग्नाशय से कम इंसुलिन उत्पन्न होती है। इस मधुमेह के कुछ रोगियों के लिए भी इंसुलिन लेना आवश्यक होता है। मधुमेह के पीड़ितों में लगभग 90 प्रतिशत टाइप 2 मधुमेह के रोगी होते हैं। इन रोगियों में रक्त ग्लूकोज अनियंत्रित होने पर शरीर में पानी की अधिकता और नमक की कमी हो जाती है। अन्य जटिलताओं में आंखों की रोशनी जाना, मूत्राशय और गुदे का संक्रमण तथा खराबी, धमनियों में चर्बी के जमाव के कारण चोटों में संक्रमण तथा हाथ-पैरों में गैंग्रीन और हृदय रोग होने का खतरा रहता है। अतरू ऐसे रोगियों का सिर्फ मधुमेह का उपचार नहीं होता बल्कि उनके तमाम अंगों की कार्यप्रणाली भी नियंत्रित करनी पड़ती है। बता दें कि मधुमेह जड़ से खत्म होने वाला रोग नहीं है, इसे व्यायाम, संतुलित आहार व प्राकृतिक उपचार से नियंत्रित किया जा सकता है। चूंकि यह आनुवंशिकी के साथ-साथ गलत जीवनचर्या से उपजने वाली बीमारी हैं, अतरू इसकी चिकित्सा में व्यायाम एवं प्राकृतिक उपायों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। सच तो यह है कि संतुलित आहार विहार और स्वस्थ जीवन शैली अपनाकर जीवन पर्यंत निरोग रहा जा सकता है। अत: बाल्यावस्था से ही इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। रोगग्रस्त होने के बाद रोगमुक्ति हेतु प्रयास करने से कहीं बेहतर है कि निरोगी काया के लिए स्वाभाविक रूप से सदैव सजग रहा जाये। भूख और प्यास ज्घ्यादा लगना, अचानक वजन कम हो जाना, चीजों का धुंधला दिखाई देना, बार-बार पेशाब लगना, सांस फूलना, ज्यादा थकान महसूस होना, शरीर में खुजली होना, किसी भी घाव को ठीक होने में अधिक समय लगना डाईबिटीज की विशेष पहचान है। इसके बचाव के लिए डाईबिटीज पीडित व्यक्ति को आलू, चावल, शक्कर, मीठे फल, केला, केक, पेस्ट्री, घी, मक्खन, समोसा, कचैरी, ज्यादा तेल वाली चीजों करना ठीक रहता है। ऐसे लोग किसी भी फल का मुरब्बा, नारियल आदि का सेवन न करें। इसके साथ ही जो लोग मांसाहारी होते है, उन्हें अंडे, चिकन, मटन, मछली, चाय, कॉफी, शराब, धूम्रपान आदि का सेवन कम ही करना चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि मधुमेह जीवनशैली के कारण होने वाला रोग है लिहाजा इसके उपचार में जीवनशैली को ठीक करना बेहद जरूरी है।

इससे बचने के लिए जरूर जा‍निए कुछ देशी नुस्खे मधुमेह रोगियों के लिए -

1 नींबू : मधुमेह के मरीज को प्यास अधिक लगती है। अत: बार-बार प्यास लगने की अवस्था में नींबू निचोड़कर पीने से प्यास की अधिकता शांत होती है।

2 खीरा : मधुमेह के मरीजों को भूख से थोड़ा कम तथा हल्का भोजन लेने की सलाह दी जाती है। ऐसे में बार-बार भूख महसूस होती है। इस स्थिति में खीरा खाकर भूख मिटाना चाहिए।3 गाजर-पालक : इन रोगियों को गाजर-पालक का रस मिलाकर पीना चाहिए। इससे आंखों की कमजोरी दूर होती है।

4 शलजम : मधुमेह के रोगी को तरोई, लौकी, परवल, पालक, पपीता आदि का प्रयोग ज्यादा करना चाहिए। शलजम के प्रयोग से भी रक्त में स्थित शर्करा की मात्रा कम होने लगती है। अत: शलजम की सब्जी, पराठे, सलाद आदि चीजें स्वाद बदल-बदलकर ले सकते हैं।

5 जामुन : मधुमेह के उपचार में जामुन एक पारंपरिक औषधि है। जामुन को मधुमेह के रोगी का ही फल कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि इसकी गुठली, छाल, रस और गूदा सभी मधुमेह में बेहद फायदेमंद हैं। मौसम के अनुरूप जामुन का सेवन औषधि के रूप में खूब करना चाहिए।

6 जामुन की गुठली संभालकर एकत्रित कर लें। इसके बीजों जाम्बोलिन नामक तत्व पाया जाता है, जो स्टार्च को शर्करा में बदलने से रोकता है। गुठली का बारीक चूर्ण बनाकर रख लेना चाहिए। दिन में दो-तीन बार, तीन ग्राम की मात्रा में पानी के साथ सेवन करने से मूत्र में शुगर की मात्रा कम होती है।

7 करेले : प्राचीन काल से करेले को मधुमेह की औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसका कड़वा रस शुगर की मात्रा कम करता है। मधुमेह के रोगी को इसका रस रोज पीना चाहिए। इससे आश्चर्यजनक लाभ मिलता है। अभी-अभी नए शोधों के अनुसार उबले करेले का पानी, मधुमेह को शीघ्र स्थाई रूप से समाप्त करने की क्षमता रखता है।

8 मैथी : मधुमेह के उपचार के लिए मैथीदाने के प्रयोग का भी बहुत चर्चा है। दवा कंपनियां मैथी के पावडर को बाजार तक ले आई हैं। इससे पुराना मधुमेह भी ठीक हो जाता है। मैथीदानों का चूर्ण बनाकर रख लीजिए। नित्य प्रात: खाली पेट दो टी-स्पून चूर्ण पानी के साथ निगल लीजिए। कुछ दिनों में आप इसकी अद्भुत क्षमता देखकर चकित रह जाएंगे।

9 गेहूं के जवारे : गेहूं के पौधों में रोगनाशक गुण विद्यमान हैं। गेहूं के छोटे-छोटे पौधों का रस असाध्य बीमारियों को भी जड़ से मिटा डालता है। इसका रस मनुष्य के रक्त से चालीस फीसदी मेल खाता है। इसे ग्रीन ब्लड के नाम से पुकारा जाता है। जवारे का ताजा रस निकालकर आधा कप रोगी को तत्काल पिला दीजिए। रोज सुबह-शाम इसका सेवन आधा कप की मात्रा में करें।

10 अन्य उपचार : नियमित रूप से दो चम्मच नीम का रस, केले के पत्ते का रस चार चम्मच सुबह-शाम लेना चाहिए। आंवले का रस चार चम्मच, गुडमार की पत्ती का काढ़ा सुबह-शाम लेना भी मधुमेह नियंत्रण के लिए रामबाण है।

Thursday, 16 January 2020

मोबाइल ने छीना बचपन

मोबाइल  ने छीना बचपन

मोबाइल के चलन से बच्चों की मासूमियत खत्म होती जा रही है। बच्चे जिस तरह पहले छुट्टियों में परंपरागत खेलों से जुड़े रहते थे लेकिन अब वक्त बदल गया है। अब 90 फीसदी से ज्यादा बच्चे परंपरागत खेलों के बजाय इंटरनेट, आॅनलाइन या आॅफलाइन गेम्स पर समय बिताते हैं। पहले गली-मोहल्ले में खेल के मैदान पर थी, जहां सुबह-शाम बच्चों को खेलते हुए देखा जा सकता था। अब खेल मैदान भी खत्म हो गए हैं और  बचपन एक कमरे तक सिमट कर रह गया है। उनके खेल व मनोरंजन के तरीके बदल गए हैं। बच्चे पहले लुका-छिपी, गिल्ली- डंडा, रस्सी कूद, क्रिकेट, फुटबॉल, पतंग उड़ानें जैसे पारंपरिक खेलों से अपना मन बहलाते थे, वहीं अब बच्चे इन खेलों से दूर हो गए हैं। इससे उनका मानसिक विकास जरूर हो रहा है, लेकिन शारीरिक विकास ठीक ढंग से नहीं हो रहा है। शारीरिक व्यायाम, एकाग्रता, वाले इन सब खेलों की जगह अब पूरी तरह से मोबाइल गेम ने ले ली है। दरअसल आज के दौर में स्मार्टफोन ने जैसे जीवन में सब कुछ बदल कर रख दिया है। क्या बच्चे, क्या बड़े−बूढ़े धडल्ले से मोबाइल फोन का उपयोग कर रहे हैं। स्मार्टफोन, बच्चे इंटरनेट का उपयोग करने में सबसे आगे हैं। यह आंकड़ा वास्तव में चेताने वाला है कि खेलने−कूदने की उम्र के साढ़े छह करोड़ बच्चे इंटरनेट की दुनिया में डूबे रहते हैं। बड़े−बूढ़े, ज्ञानी−ध्यानी तक गूगल बाबा की सहायता लेने में कोई संकोच नहीं करते है। गूगल बाबा में पॉर्न वीडियो का भंडार रहता है  बच्चे उसको देखकर अपराध कर देते है,  इससे सीधे सीधे बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर असर पड़ रहा है। सबसे चिंतनीय यह है कि इंटरनेट की लत के चलते बच्चों पर मनोवैज्ञानिक असर अधिक पड़ रहा है। भारत इंटरनेट 2019 की हालिया रिपोर्ट में उभर कर आया है कि देश में 45 करोड़ के लगभग इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। पांच साल से कम उम्र के बच्चों के इंटरनेट के उपयोग के आंकड़ों को और जोड़ा जाए तो यह आंकड़ा और अधिक ही होगा। दरअसल स्मार्टफोन ने सबकुछ बदल कर रख दिया है। बच्चों के परंपरागत खेल छूटने की वजह आधुनिकता की अंधी दौड़ है। आजकल माता-पिता ही बच्चों को ऐसे खेल से दूर रखते हैं। वे भी उन्हें घरों से दूर नहीं जाने देते उन्हें डर रहता है कि कहीं बच्चा बाहर खेलेगा तो चोट लग जाएगी या बिगड़ जाएंगे। इसी सोच के कारण बच्चों को घरों से बाहर जाने से रोकते हैं। स्कूलों में जो प्रतियोगिताएं होती है उनमें भी भाग लेने के लिए बच्चों को अभिभावक प्रेरित नहीं करते हैं।मोबादल की लत से बच्चों को स्वाभाविक सामाजिक−मानसिक स्थिति पर विपरीत असर पड़ रहा है। बच्चों का जो स्वाभाविक विकास होना चाहिए वह नहीं हो रहा है और यह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कि इंटरनेट के अत्यधिक उपयोग के दुष्परिणाम सामने आते जा रहे हैं। दरअसल पूरा सामाजिक ताना−बाना बिगड़ता जा रहा है। बच्चों की मिलनशीलता और संवेदनशीलता खोती जा रही है। शारीरिक मानसिक विकास के परंपरागत गेम्स अब वीडियो गेम्स में बदलते जा रहे हैं। परंपरागत खेलों से होने वाला स्वाभाविक विकास अब वीडियो गेम्स के बदला लेने, मरने मारने वाले गेम्स लेते जा रहे हैं। यही कारण है कि बच्चे तेजी से आक्रामक होते जा रहे हैं। समूह में रहना या यों कहे कि दो लोगों के साथ रहने, आपसी मेलजोल को यह इंटरनेट खत्म करता जा रहा है। घर में ही बच्चे स्मार्टफोन पर गेम्स या यूट्यूब के वीडियो में इस तरह से खोए रहते हैं कि आपस में बात करने तक की फुर्सत नहीं दिखती। बच्चों में मोटापा बढ़ता जा रहा है। चिड़चिड़ापन आता जा रहा हैं,जहां तक कि बात-बात पर उत्तेजित हो जातक है झगडा करने लगते है एक कोना ही उनको अच्छा लगने लगता है न ही दोस्त, रिस्तेदार, नाना-नानी, दादा-दादी तक अच्छे नहीं लगते है  संस्कारों को भूल जाता है वह अपने में खोए रहने की आदत बनती जा रही है। इनका बचपन रचनात्मक कार्यों की जगह डेटा के जंगल में गुम हो रहा है. पिछले कई सालों में सूचना तकनीक ने जिस तरह से तरक्की की है, इसने मानव जीवन पर बेहद गहरा प्रभाव डाला है. न सिर्फ प्रभाव डाला है, बल्कि एक तरह से इसने जीवनशैली को ही बदल डाला है। शायद ही ऐसा कोई होगा, जो इस बदलाव से अछूता होगा। बच्चे और युवा तो सूचना तकनीक के प्रभाव से इस कदर प्रभावित हैं कि एक पल भी वे स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नहीं समझते।
महानगरों में  ही नहीं ग्रामीण इलाकों में यह मानसिक बीमारी इस कदर बढ़ चुकी है कि कई युवाओं को तो स्वास्थ्य सुधार केंद्र में भर्ती कराना पड़ रहा है. हालात ये हैं कि यदि इस पर काबू नहीं पाया गया, तो समाज में एक नई विकृति पैदा हो सकती है. इंटरनेट एडिक्शन डिस्आॅर्डर के लक्षण हर शहर के युवाओं में उभरने शुरू हो चुके हैं. इससे पहले कि युवा इस रोग की चपेट में पूरी तरह आ जाएं, ठोस कदम उठाना बेहद जरूरी है. मोबाइल इंटरनेट ने सबसे बड़ा बदलाव मानव की जीवनशैली पर डाला है। रात को सोने के बजाय लोग मोबाइल की स्क्रीन पर नजरें टिकाए रहते हैं। दरअसल, लंबे समय तक ऐसा करने से नींद न आने की समस्या पैदा हो जाती है. जैसे-जैसे अंधेरा छाता है दिमाग में मेलेटॉनिन की मात्रा बढ़ती जाती है, जिससे हमें नींद आती है, लेकिन जब हम नींद को नजरअंदाज करते हुए मोबाइल पर नजरें टिकाए रहते हैं, तो धीरे-धीरे मेलेटॉनिन का बनना बंद हो जाता है, जिससे नींद न आने की बीमारी (इंसोम्निया) का खतरा पैदा हो जाता है. ऐसी हालत में लंबे वक्त तक दवाई के सहारे रहना पड़ सकता है। सबसे बेहतर यही है कि बच्चों को मोबाइल से दूर रखें। सप्ताह में एक दिन सिर्फ छुट्टी के दिन ही मोबाइल उनके हाथ में दें. बच्चा इंटरनेट पर क्या ब्राउज करता है, उसपर भी नजर रखें। बच्चों को तकनीक का सही इस्तेमाल करना सिखाएं।

प्रेम शंकर शर्मा

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