Sunday, 25 March 2018

मुसीबत में है प्रवासी पक्षी


सर्दियों के दिनों में बिहार की झील, नदियां और ताल-तलैया प्रवासी मेहमानों से गुलजार हो जाते हैं। प्रवासी पक्षियों का कलरव पर्यटकों को लंबे अरसे से लुभाता रहा है लेकिन इन विदेशी मेहमानों के प्रति अब अतिथि देवो भव की परंपरा नहीं निभाई जाती। पक्षियों के आते ही शिकारियों का झुंड सक्रिय हो जाता है और मेहमानों को डाला जाने वाला दाना ही उनके लिए मौत का सबब बनता है। दूर देश से आई चिड़ियों में से कई अपने वतन नहीं लौट पाती हैं। राष्ट्रीय उच्च पथ के किनारे प्रवासी पक्षियों को बेचते बच्चे मेहमानों के प्रति शिकारियों के निर्मम व्यवहार की कहानी कहते हैं। वन विभाग पक्षियों के अवैध शिकार पर नियंत्रण का दावा करता रहा है लेकिन सच यह है कि क्रूर बर्ताव के कारण अब प्रवासी पक्षियों ने कुछ इलाकों में जाना ही बंद कर दिया है। पक्षी विशेषज्ञों की मानें तो जब पक्षियों के मूल निवास स्थान की झीलें और जलाशय बर्फ में तब्दील हो जाता है और भोजन की कमी होती है तब ये पक्षी अपेक्षाकृत गर्म इलाकों को अपना बसेरा बनाते हैं। 

बिहार में इन प्रवासी पक्षियों का सितंबर से ही आना शुरू हो जाता है और ये फरवरी तक इसी इलाके में टिके रहते हैं। सबसे पहले आते हैं खंजन (वामटेल्स) और अबाबील (स्वालीज)। नवंबर में बतख एवं चहा समूह के अन्य जल-पक्षी बड़ी संख्या में आते हैं। बिहार आने वाले प्रवासी पक्षी बाग-बगीचे और जंगलों में रहनेवाले होते हैं। इसमें रेड ब्रेस्टेड लाईकैचर, ब्लैक रेड स्टार्ट पक्षी शामिल है। कई तरह के बाज एवं अन्य शिकारी पक्षी तथा क्रेन एवं स्टोर्क जैसे बड़े-बड़े पक्षी भी प्रवास के लिए बिहार आते हैं। बिहार में छह पक्षी अभयारण्य हैं लेकिन उनकी देखरेख की व्यवस्था लचर है। फतुहा, बेगूसराय, कुशेश्वरस्थान, पटना सिटी जैसे स्थानों पर पक्षियों के व्यापार के बड़े केंद्र हैं। शिकारियों का समूह प्रवासी पक्षियों को इन केंद्रों पर पहुंचाता रहा है। वैसे हर इलाके में मांसाहार के लिए शरारती तत्व प्रवासी पक्षियों को शिकार बनाते हैं। काबर झील विदेशी पक्षियों का मनपसंद बसेरा बनती रही है। पहले लाखों की संख्या में रंग-बिरंगे पक्षी प्रवासी पक्षी यहां छह महीने तक अपना घर बसाते थे लेकिन अब स्थिति बदलती जा रही है। शिकारियों की कुदृष्टि इन पक्षियों पर पड़ी , इस वजह से पक्षियों का आना कम हो रहा है। पेशेवर शिकारी दाने में बेहोशी की दवा मिलाकर इन पक्षियों को पकड़ लेते हैं।

 कुछ पक्षियों का बकायदा शिकार होता है। पूरे देश में पक्षियों की 1200 से ज्यादा प्रजातियां और लगभग 2100 उपप्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से 350 प्रजातियां प्रवासी हैं जो शीतकाल में यहां आती हैं। पाइड क्रेस्टेड कक्कू (चातक) जैसे प्रवासी पक्षी बरसात में यहां आते हैं। बिहार में पक्षियों की 300 से अधिक प्रजातियां हैं जिनमें से पचास फीसदी प्रवासी हैं। वनों की कटाई, तेजी से हो रहे शहरीकरण और जलाशयों को पाटे जाने से भी प्रवासी पक्षियों का आगमन घटा है।  इस वजह से मेहमानों ने अब दूसरी तरफ रुख करना शुरू कर दिया है। प्रवासी पक्षियों की पहचान के लिए इन्हें छल्ले पहनाने और ट्रांसमीटर की सहायता से इनके प्रवास की गतिविधियों को समझने की कोशिश हुई है लेकिन अध्ययन सीमित ही रहा है। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने कुछ प्रयास किए हैं लेकिन सरकारी प्रयास शून्य ही रहा है। प्रवासी पक्षी हिमालय के पार मध्य एवं उत्तरी एशिया एवं पूर्वी-उत्तरी यूरोप से बिहार आते हैं। लद्दाख, चीन, तिब्बत, जापान, रूस, साइबेरिया, अफगानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान, मंगोलिया, पश्चिमी जर्मनी, हंगरी एवं भूटान से आकाश के रास्ते आने वाले इन पक्षियों पर खतरे बढ़ते ही रहे हैं। मां जानकी की प्राकट्य स्थली सीतामढ़ी में खास जगहों पर ही इन खूबसूरत पक्षियों का कलरव सर्दियों में सुनाई देता है। सुरसंड रानी पोखर, सिसौदिया मन के अलावा पंथापाकड़ पोखर के आस-पास हरियल चकवा, लालसर पक्षियों के समूह मछली का शिकार करने के लिए कुछ दिनों के लिए अपना डेरा जमाते हैं। लेकिन अब मेहमान पक्षी अपने जोड़े से बिछुड़ने के बाद ही स्वदेश पहुंच पाता है। पक्षियों के सौदागार इन्हें अपने जाल में फंसाकर हजारों की कमाई प्रति वर्ष जरूर कर लेता है।

वन्य एवं पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना के द्वारा इसे वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत निषिध क्षेत्र घोषित किया। पिछले दो दशकों में कई आश्वासनों के बावजूद और इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल घोषित के बाद भी आधारभूत संरचना विकसित नहीं की गई। ठंड का मौसम आते ही यहां देश-विदेश से लालसिर वाले ग्रीन, पोर्टचाई स्पाटबिल, टीलकूट, बहूमणि हंस, लालसर, श्वंजन, चाहा, क्रेन, आइविस, डक, अंधिगा आदि पक्षी आते हैं जो तीन-चार माह रहते हैं। लेकिन इसमें चोरी छिपे अंधिगा, लालसर, चाहा का शिकार होता रहता है। कई जगहों पर चिड़ीमार का गिरोह सक्रिय है जो इन्हें मार-पकड़कर बेचते हैं। हालांकि एक-दो बार जिंदा पक्षी पकड़ने वाले के खिलाफ कार्रवाई हुई है। जनवरी में नए साल की शुरूआत पर जितनी तेजी से पक्षी आते हैं उतने ही तेजी से चंद पैसों के लिए ये पाहुन (विदेशी) पक्षी मार गिराए भी जाते हैं। जगह-जगह वन विभाग ने पक्षी शिकार नहीं करने के बोर्ड आदि लगाए है लेकिन जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत बनी हुई है।  पश्चिमी चंपारण जिला वाल्मीकि व्याघ्र आश्रयणी एवं जंगल व नदियों के प्रचुरता के मामले में जाना जाता है। चंपारण में कई ऐसी जगहें हैं जहां सर्दी के मौसम आरंभ होते ही प्रवासी पक्षियों का आना आरंभ हो जाता है। हां यह बात भी गौर करनेवाली है कि यहां के निवासी भी इन पक्षियों को मेहमान की तरह सम्मान देते हैं। हाल ही में वन विभाग के अधिकारियों ने नरकटियागंज के केहुनिया गांव में स्थित चिड़िअहवा तालाब पर आकर रह रहे प्रवासी पक्षियों के झुंड को देखकर खुशी जाहिर करते हुए ग्रामीणों को एक समिति भी गठित करने का सुझाव दिया।


Tuesday, 20 March 2018

सरकार की सरकारी सेवा में कमियों का ना पहुंचा पाना

 

भारत में तेजी से आर्थिक विकास होने के बावजूद देश में हर साल 4 लाख नवजात शिशुओं की 24 घंटे के भीतर मौत हो जाती है. मौत के प्रमुख कारणों में कुपोषण, निमोनिया और डायरिया जैसे रोग हैं, जिनका इलाज देश में सस्ता और आसान है। चैरिटी सेव द चिल्ड्रन नामक एन. जी. ओ. द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में यह पाया गया है कि विश्व में नवजात शिशुओं की मृत्यु में भारत का स्थान पांचवां है. यह संस्था वैश्विक अभियान के तहत दुनिया भर के सभी देशों में शिशुओं की मृत्यु दर में कमी लाने का प्रयास कर रही है. इस शोध में अगस्त और सितम्बर महीने में भारत सहित ब्रिटेन, इटली, चीन और केन्या जैसे देशों से 15,000 लोगों को शामिल किया गया था। भारत में सेव द चिल्ड्रन संस्था के प्रमुख थॉमस चंडी ने बताया कि भारत में सरकार की ओर से आम जनता को आधारभूत स्वास्थ्य सेवा दिए जाने की पहल के बावजूद देश में शिशु मृत्यु दर में कोई कमी नहीं हुई है. इस रिपोर्ट में 14 देश शामिल हैं. आंकड़ों के अनुसार हर साल लगभग 2 लाख शिशुओं की मौत जन्म के 24 घंटे के भीतर हो जाती है. यानि हर पन्द्रह सेकेंड पर एक शिशु की मौत हो जाती है. भारत में शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है यानि प्रति 1000 शिशुओं में 72 शिशुओं की मृत्यु हो जाती है, जो पड़ोसी देश बांग्लादेश से भी ज्यादा है. इतना ही नहीं हर साल देश में पांच साल की उम्र से पहले ही दो लाख बच्चों की मौत हो जाती है. हालांकि सरकार की ओर से स्वास्थ्य संबंधी कई योजनाएं हैं, जिसके लिए फंड है और संसाधन भी हैं. इसके बावजूद ज्यादातर जगहों पर स्वास्थ्य सेवाएं लोगों तक पहुंच नहीं पा रही हैं. दूर-दराज गांवों में जहां डॉक्टर ज्यादातर उपलब्ध नहीं होते लोग अपने बच्चों का इलाज अप्रशिक्षित और अनुभवहीन चिकित्सकों से करवाते हैं.चंडी के अनुसार नवजात शिशुओं की मृत्यु का सबसे प्रमुख कारण गरीबी है. इतना ही नहीं कई बार स्थानीय परम्पराएं और अंधविश्वास भी राह में रोड़े अटकाता है. कुछ आदिवासी समुदाय आज भी जन्म के बाद मां को शिशु स्तनपान कराने नहीं देते हैं.हालांकि टीकाकरण, घर की साफ-सफाई और स्तनपान जैसे विभिन्न प्रोग्रामों में चालीस अरब डॉलर निवेश करने से पहले की अपेक्षा मृत्यु दर में कमी हुई है. इस बारे में भारत की स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए इंटरव्यू में कहा, स्पष्ट है कि अभी भी बहुत कुछ करने की जरूरत है. हमें इस दिशा में वर्त्तमान संसाधनों का उपयोग करते हुए खास राज्यों में फोकस करने की आवश्यकता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 20 देशों में 44.5 लाख की आबादी वाला गोरखपुर शिशु मृत्यु दर के मामले में 18 वें नंबर पर है। इन आंकड़ों ने साफ कर दिया है कि गोरखपुर ने पश्चिमी अफ्रीका के रिपब्लिक आॅफ गाम्बिया की जगह ले ली है। इस देश की आबादी 19.18 लाख है। वहीं गोरखपुर को टक्कर देने में 62.90 और 64.60 शिशु मृत्यु दर वाले जाम्बिया और साउथ सुडान हैं। उल्लेखनीय है कि गोरखपुर में विगत तीन दशकों से बड़ी संख्या में बच्चों की अकाल मौतें हो रही हैं। यहां शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है। आंकड़े इतने चौंकाने वाले हैं, अगर गोरखपुर एक देश होता तो वह उन 20 देशों की जमात में शामिल होता जहां सबसे ज्यादा मृत्यु दर हैं। अगर स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो गोरखपुर में पैदा हुए 1000 बच्चों में से 62 बच्चे एक साल से पहले ही मर जाते हैं। पूरे उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 48 का है जबकि पूरे भारत में 1,000 में से 40 बच्चों की मौत हो जाती है। सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के यूएस के डेटा से वैश्विक स्तर पर तुलना करें तो गोरखपुर दुनिया के ऐसे 20 देशों में शामिल दिखता है, जहां शिशु मृत्यु दर का आंकड़ा सबसे ज्यादा है।एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 20 देशों में 44.5 लाख की आबादी वाला गोरखपुर शिशु मृत्यु दर के मामले में 18वें नंबर पर है। राजस्थान में इन आठ सालों में 5.12 लाख, बिहार में 6.54 लाख, झारखंड में 1.70 लाख, महाराष्ट्र में 2.92 लाख, आन्ध्र प्रदेश में 3.35 लाख, गुजरात में 2.95 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई. देश के चार राज्यों (उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश) में देश की कुल नवजात मौतों की संख्या में से 56 प्रतिशत मौतें दर्ज होती हैं.
 
वर्ष 2008 से 2015 की अवधि में भारत में 91 लाख बच्चे अपना पहला जन्म दिन नहीं मना पाए. इस अवधि में शिशु मृत्यु दर 53 से घटकर 37 पर आई है, पर फिर भी वर्ष 2015 के एक साल में ही
भारत के चार राज्यों, उत्तर प्रदेश (24.37 लाख), मध्य प्रदेश (8.94 लाख), राजस्थान (7.31 लाख) बिहार (10.3 लाख) में सबसे ज्यादा संकट की स्थिति है.
भारत के 56 प्रतिशत शिशु मृत्यु इन्हीं राज्यों में होती हैं. बहरहाल महाराष्ट्र (3.96 लाख), आंध्र प्रदेश (5.11 लाख), गुजरात (4.13 लाख) और पश्चिम बंगाल (3.68 लाख) की स्थिति भी बहुत दर्दनाक है. जब से वैश्विक स्तर पर सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की चर्चा शुरू हुई है, तबसे भारत में बच्चों के लिए कुछ स्वास्थ्य योजनाएं जरूर बनने लगी हैं, किन्तु उनका दायरा ह्लजागरूकताह्व तक ही सीमित रहा है.भारत में वर्ष 2008 से 2015 की अवधि में पांच साल से कम उम्र के 1.13 करोड़ बच्चे दुनिया से कूच कर गए. हमने उनका स्वागत नहीं किया, हमने उन्हें संभाला नहीं और उनका जीवन मुरझा गया.
इनमें से 31.11 लाख बच्चों की मृत्यु उत्तर प्रदेश में, 11.59 लाख बच्चों की मृत्यु मध्य प्रदेश में, 8.9 लाख बच्चों की मृत्यु राजस्थान में, 13.40 लाख बच्चों की मृत्यु बिहार में हुई.
छोटे बच्चों की मृत्यु के बड़े कारण व्यवस्थित वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अध्ययनों से नवजात शिशु मृत्यु दर इतनी ज्यादा होने के चार महत्वपूर्ण कारण पता चले- समय से पहले जन्म लेने के कारण होने वाली जटिलताएं (43.7 प्रतिशत), विलंबित और जटिल प्रसव के कारण (19.2 प्रतिशत), निमोनिया, सेप्सिस और अतिसार यानी संक्रमण के कारण (20.8 प्रतिशत), जन्मजात असामान्यताओं के कारण (8.1 प्रतिशत).
  भारत के महापंजीयक की नमूना पंजीयन प्रणाली (एसआरएस) के मुताबिक भारत में शिशुओं की मौत का कारण समय पूर्व जन्म लेना और जन्म के समय बच्चों का वजन कम होना (35.9 प्रतिशत), निमोनिया (16.9 प्रतिशत), जन्म एस्फिक्सिया एवं जन्म आघात (9.9 प्रतिशत), अन्य गैर संचारी बीमारियां (7.9 प्रतिशत), डायरिया रोग (6.7 प्रतिशत), जन्मजाति विसंगतियां (4.6 प्रतिशत) और संक्रमण (4.2 प्रतिशत) हैं.

हाल ही में आई यूनिसेफ की रिपोर्ट चेताती है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के मामले में भारत की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। भले ही इस मामले में हम पाकिस्तान से बेहतर स्थिति में हों, लेकिन हमारी स्थिति बांग्लादेश, नेपाल और भूटान से भी बदतर है। भारत नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के मामले में इथियोपिया, गिनी-बिसाऊ, इंडोनेशिया, नाइजीरिया और तंजानिया के समकक्ष खड़ा दिख रहा है। भारत में हर साल जन्म लेने वाले 2 करोड़ 60 लाखों बच्चों में से 40 हजार अपने जन्म के 28 दिनों के भीतर ही मौत के मुंह में समा जाते हैं। अर्थात यहां शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर 29 है। भारत में हर साल सात लाख नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है। दुनिया में होने वाली नवजात शिशुओं की मौत में भारत की हिस्सेदारी 26 प्रतिशत है। शिशु मृत्यु दर में दुनिया में भारत का स्थान पांचवां है। भारत में वर्ष 2008 से 2015 के बीच हर रोज औसतन 2137 नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई। देश में अब भी शिशु मृत्यु की पंजीकृत संख्या और अनुमानित संख्या में बड़ा अंतर दिखाई देता है। भारत में शिशु मृत्यु दर देश के विकास के सभी मानकों को धराशायी कर रही है। बीते आठ सालों में देश में पांच साल की उम्र से पहले 1.3 करोड़ बच्चों की मौत हुई। चार राज्यों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश में कुल नवजात मौतों की 56 प्रतिशत मौतें दर्ज हुई। वर्ष 2008 से 2015 के बीच भारत में 1.13 करोड़ बच्चे अपना पांचवां जन्मदिन नहीं मना पाए। इनमें 62.4 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। प्रश्न उठना लाजमी है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के मामले में भारत की स्थिति इतनी शोचनीय और चिंताजनक क्यों है? जब इसकी पड़ताल की गई तो यह तथ्य प्रकाश में आया कि महिलाओं की स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए आबंटित धनराशि का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। वर्ष 2014-15 से 2016-17 के बीच बच्चों और महिलाओं के लिए भारत सरकार द्वारा 31,890 करोड़ रुपए आबंटित किए गए। लेकिन इसमें से 7951 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं हो पाए। अगर राज्यों में इस व्यय पर नजर डालें तो इन तीन वर्ष की अवधि में बिहार को स्वास्थ्य बजट में 2947 करोड़ रुपए मिले, जिसमें से 838 करोड़ रुपए खर्च नहीं हो पाए। मध्यप्रदेश में 2677 करोड़ के स्वास्थ्य बजट में 445 करोड़, राजस्थान में 2079 करोड़ में से 552 करोड़, उत्तर प्रदेश में 4919 करोड़ में से 1643 करोड़ तथा महाराष्ट्र में 2119 करोड़ रुपए के बजटीय आबंटन में से 744 करोड़ रुपए खर्च नहीं हो पाए।भारत में नवजात मृत्यु, शिशु मृत्यु व मातृ मृत्यु की ऊंची दर हमेशा से चिंता का विषय रही है। इस स्थिति की प्रमुख वजह मूलभूत सुविधाओं की कमी के साथ ही सरकारी नीतियों की अदूरदर्शिता और प्रशासनिक लापरवाही भी है। दूरदराज के गांवों और आदिवासी अंचलों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र न होने के कारण आज भी प्रसूताओं को कई किलोमीटर की दूरी तय कर इन केंद्रों तक ले जाना पड़ता है, जहां प्रसव संबंधी न्यूनतम सुविधाएं और संसाधन प्राय: नदारद पाए जाते हैं। ऐसे में भात में, शिशु और मातृ मृत्यु की ऊंची दर बेहद चिंताजनक तो है, पर हैरानी का विषय नहीं है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हर रोज जितनी महिलाएं प्रसव के दौरान मरती है उससे कहीं ज्यादा गर्भ संबंधी बीमारियों की शिकार होती हैं जिसका असर लम्बे समय तक उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। आज भी भारत में औसतन सात हजार की आबादी पर एक ही डॉक्टर है। 2002 की स्वास्थ्य नीति की अनुशंसा के बावजूद हम आज तक स्वास्थ्य पर कुल जीडीपी के दो फीसद के बराबर राशि खर्च करने का प्रावधान लागू नहीं कर पाए। इसी का नतीजा है कि चिकित्सा क्षेत्र की तमाम प्रगति के बावजूद हम शिशु और मातृ मृत्यु दर को नियंत्रित करने के मामले में फिसड्डी ही साबित हुए हैं। भारत में नवजात शिशुओं की मौत का कारण कुपोषण, निमोनिया और डायरिया जैसी बीमारियां है। ‘सेव द चिल्ड्रन’ संस्था के प्रमुख थॉमस चांडी का मानना है कि भारत में सरकार की ओर से आम जनता को आधारभूत स्वास्थ्य सेवा दिए जाने की पहल के बावजूद शिशु मृत्यु दर में कोई खास कमी नहीं आई है। स्वास्थ्य सेवाएं सभी तक नहीं पहुंच पाना भी इसकी एक बड़ी वजह है। यदि लोगों को आसानी से मिलने वाले सहज इलाज का ज्ञान हो जाए तो इन शिशुओं की मृत्यु काफी हद तक रोकी जा सकती है। आज भी देश की आधी से ज्यादा महिलाओं का प्रसव किसी प्रशिक्षित धाई के बिना होता है। गरीबी और स्थानीय परम्पराएं तथा अंधविश्वास भी शिशु मृत्यु दर में वृद्धि का कारक बनते हैं। शिशुओं की मौत की त्रासदी की जड़ें लैंगिक भेदभाव और स्वास्थ्य व पोषण सेवाओं को खत्म किए जाने की नीति में भी दबी हुई हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में 26.8 प्रतिशत लड़कियों के विवाह अठारह साल से कम उम्र में हो जाते हैं, जिससे उन लड़कियों के कम उम्र में गर्भवती होने के कारण वे कमजोर, कुपोषित और असुरक्षित हो जाती हैं। केवल इक्कीस प्रतिशत महिलाओं को ही प्रसव-पूर्व सेवाएं- जैसे चार स्वास्थ्य जांचें, टिटनेस का इंजेक्शन और सौ दिन की आयरन फोलिक एसिड की खुराक आदि- मिल पाती हैं। विवाह अठारह साल से कम उम्र में होने से बच्चे कमजोर और कुपोषण का शिकार हो जाते हैं।
  ऐसे में सुरक्षित प्रसव और नवजात के जीवन की सुरक्षा आखिर की जाए तो कैसे! चूंकि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की प्रगति के लिए निवेश बहुत कम हो पाता है, इस तरह प्रकारांतर से प्रसूताओं को निजी सेवाओं की ओर धकेला जाता है। शहरी व ग्रामीण दृष्टि से भी भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर में असमानता है। शहर में नवजात मृत्यु दर 15 है जबकि गांव में यह 29 है। 1 जनवरी 2017 से लागू मातृत्व लाभ योजना से भी असंगठित क्षेत्र की सत्तर प्रतिशत महिलाएं वंचित हैं। 35.9 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मृत्यु का कारण उनका समय से पहले जन्म लेना, जन्म के समय वजन कम होना, मां का दूध नहीं मिलना और संक्रमण का शिकार होना है। भारत के महापंजीयक के मुताबिक संक्रमण के कारण 23.6 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु होती है जिनमें 16.9 प्रतिशत निमोनिया के कारण और 6.7 प्रतिशत डायरिया के कारण मौत के मुंह में समा जाते हैं। नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में वृद्धि की अन्य वजहों में कम उम्र में विवाह के साथ ही गर्भावस्था के दौरान समुचित भोजन की कमी और भेदभाव, मानसिक-शारीरिक अस्थिरता, विश्राम और जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं न मिलना, सुरक्षित प्रसव न होना आदि प्रमुख हैं। कुल मिलाकर शिशु मृत्यु दर में वृद्धि के तमाम कारणों में एक भी ऐसा नहीं है जिस पर नियंत्रण न पाया जा सके। जागरूकता, इच्छाशक्तिऔर कर्तव्यपरायणता के बल पर इस पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जबकि देश के नौनिहालों के जीवन से जुड़े इस विषय को संजीदगी से लिया जाए। क्या वजह है कि बात-बात पर संसद की कार्यवाही ठप करने वाले माननीयों की संवेदना इन मासूमों के सवाल पर जागृत नहीं होती! क्यों शिशु मृत्यु दर का मुद्दा चुनाव घोषणापत्र का विषय नहीं बन पाता!

भारत में गंभीर रूप से संकटग्रस्त10 पक्षियों की प्रजातियां


अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने 2013 के लिए भारत में देखी जाने वाली पक्षियों की दस प्रजातियों को गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजातियों की सूची में शामिल किया है। इनमें ग्रेट साइबेरियन क्रेन, गोडावण, सफेद पीठ वाला गिद्ध ,लाल सिर वाला गिद्ध, जंगली उल्लू स्पून बिल्ड सैंडपाइपर और सफेद पेट वाला बगुला आदि। इन पक्षियों की आबादी में गिरावट की मुख्य वजहों में आवास का नुकसान, संशोधन, विखंडन और समाप्त होना, पर्यावरण प्रदूषण, शिकार और भू-उपयोग में परिवर्तन शामिल है।

1. ग्रेट इंडियन बुसटर्ड (गोडावण)
ग्रेड इंडियन बुसटर्ड सबसे संकटग्रस्त प्रजातियों में से एक है जो सिर्फ भारत और इसके आस-पास के इलाकों में ही पाया जाता है। यह उड़ सकने वाली बड़ी पक्षियों की प्रजातियों में से एक है। इसका वजन 15 किलोग्राम होता है और यह जमीन से करीब 1 मीटर उंचा होता है। जमीन पर रहने वाले सबसे बड़े पक्षी का आवास झाड़ियां, लबे घास, अर्द्ध- शुष्क घास के मैदान और राजस्थान के अर्द्ध रेगिस्तान इलाके हैं। बहुत अधिक शिकार और आवास के समाप्त होने के कारण ये पक्षी भारत के कई इलाकों से समाप्त हो चुके हैं। यह राजस्थान का राज्य पक्षी है। महाराष्ट्र के सोलापुर में ग्रेड इंडियन बुसटर्ड सैंचुरी नाम से वन्यजीव अभयारण्य भी है।

2. लाल सिर वाला गिद्ध
लाल- सिर वाले गिद्ध को भारतीय काला गिद्ध या राजा गिद्ध भी कहते हैं। यह भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाने वाला पूर्वजगत गिद्धों की प्रजातियों में से एक है। पशु चिकित्सा में इस्तेमाल किए जाने वाले डाइक्लोफेनाक की वजह से हाल के वर्षों में इस प्रजाति की आबादी बहुत तेजी से कम हुई है। भारतीय गिद्ध, लंबी-चोंच वाला गिद्ध और सफेद पुट्ठे वाला गिद्ध, भारत में पाए जाने वाली गिद्ध की कुछ और प्रजातियां हैं और पक्षियों के विलुप्तप्राय प्रजातियों की श्रेणी में आती हैं।

3. जंगली उल्लू
परंपरागत उल्लू प्रजाति में से जंगली उल्लू - सबसे संकटग्रस्त प्रजात है और यह मध्य भारत के जंगलों में पाया जाता है। छोटे जंगली उल्लुओं को विलुप्त माना जाता था लेकिन बाद में इन्हें फिर से पाया गया और भारत में इनकी बहुत कम आबादी इन्हें विलुप्तप्राय की श्रेणी में ले आई। मेलघाट टाइगर रिजर्व, मध्यप्रदेश का तलोदा वन रेंज और वन क्षेत्र एवं छत्तीसगढ़ में छोटे जंगली उल्लू पाए जाते हैं। यह महाराष्ट्र का राज्य पक्षी है।

4. चम्मच की चोंच वाला टिटहरी
चम्मच की चोंच वाली टिटहरी विश्व की सबसे संकटग्रस्त पक्षी प्रजाति है और भारत में भी यह विलुप्तप्राय श्रेणी में ही आती है। बहुत ही कम आबादी, आवास का समाप्त होना और बहुत कम प्रजनन इस प्रजाति की पक्षियों को विलुप्त होने की कगार पर ले आया है। भारत में ये सुंदरवन डेल्टा और पड़ोसी देशों में पाई जाती हैं।

5. जेरडॉन्स करसर
रात में दिखाई देने वाला जेरडॉन्स करसर पक्षी भारत का सबसे संकटग्रस्त और रहस्य भरे पक्षियों में से एक है। यह खास तौर पर दक्षिणी आंध्र प्रदेश में देखी जाती है। जेरडॉन्स करसर विलुप्तप्राय पक्षी के तौर पर सूचीबद्ध है। इस विलुप्त घोषित किया जाना था लेकिन यह फिर से दिखी और आवास की कमी की वजह से विलुप्तप्राय प्रजाति बना हुआ है। यह पक्षी आमतौर पर गोदावरी नदी घाटी, श्री लंकामल्लेश्वर अभयारण्य और पूर्वी घाट के वन क्षेत्र में पाया जाता है।
6. चरस
चरस बुसटर्ड फैमली का दुर्लभ प्रजाति है और सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। यह विलुप्तप्राय प्रजातियों में से एक है और दुनिया के अन्य स्थानों से लगभग समाप्त हो चुका है। भारतीय उपमहाद्वीप में 1,000 से भी कम युवा चरस मौजूद हैं। यह दुनिया का सबसे दुर्लभ बुसटर्ड है लेकिन शिकार और कृषि के भू-संरक्षण की वजह से इसका प्राकृतिक आवास समाप्त हो गया और यह दुर्लभ प्रजाति की सूची में आ गया।
7. सफेद पेट वाला बगुला
ग्रेट इड बेलिड हेरॉन जिसे इंपीरियल हेरॉन भी कहते हैं, पूर्वी हिमालय पर्वतमाला के ग्रेट हिमालय की तलहटी में पाया जाता है। लंबा, काला और भूरे रंग का बगुला बड़ी प्रजाति का है। इसकी गर्दन सबसे लंबी होती है और उस पर कोई काली धारी भी नहीं होती। दलदली जमीनों के समाप्त होने, शिकार और निवास स्थान का खत्म होना बगुलों के लिए प्रमुख चिंता का कारण है।

8. हिमालयी बटेर
अद्भुत और सुंदर हिमालयी बटेर तीतर के परिवार से है और उत्तराखंड के पश्चिमी हिमालय और भारत के उत्तरझ्र पश्चिम इलाके में ही पाया जाता है। हिमालयी बटेर भारतीय पक्षियों में से सबसे अधिक संकटग्रस्त पक्षी प्रजातियों में से एक है। आवास स्थान के समाप्त होने की वजह से ये विलुप्त होने की कगार पर आ गए हैं। बटेर मध्यम आकार वाले होते हैं और सिर्फ अपने आसझ्र पास के इलाकों में ही उड़ते हैं।
9. सोसिएबल लैपविंग
सोसिएबल लैपविंग कजाकिस्तान के घास के खुले मैदानों से आने वाला प्रवासी पक्षी है जो भारत के सिर्फ उत्तरझ्र पश्चिम इलाकों में ही पाया जाता है। मध्यम आकार का लैपविंग लंबी टांगों, गहरे रंग के पेट और छोटे काले बिल की वजह से बहुत आकर्षक दिखता है। आवास का समाप्त होना इस प्रजाति के पक्षियों को संकटग्रस्त सूची में लाने की मुख्य वजह है।
10. साइबेरियन क्रेन
शानदार साइबेरियन क्रेन प्रवासी पक्षी हैं और सर्दियों के मौसम में भारत आते हैं। खूबसूरत साइबेरियन क्रेन दुनिया में विलुप्तप्राय प्रजाति की पक्षियों में से एक हैं। बीते कुछ वर्षों में प्रवासी साइबेरियन क्रेन की आबादी थोड़ी कम हुई है और इन पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।

Thursday, 15 March 2018

अपनो के ही बच्चों के शिकार बुजुर्ग


पेड़ों, पत्थरों से लेकर जानवरों तक को पूजने वाला भारत अपने बुजुर्गों का ही ख्याल नहीं रख रहा. कभी मां बाप को भगवान मानने वाले भारत के बेटे अब उन्हें बोझ मानने लगे हैं और उन पर अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं.भारत के गैर सरकारी संगठन हेल्प एज इंडिया के सर्वे के अनुसार 23 फीसदी बुजुर्ग अत्याचार के शिकार हैं. ज्यादातर मामलों में बुजुर्गों को उनकी बहू सताती है. 39 फीसदी मामलों में बुजुर्गो ने अपनी बदहाली के लिए बहुओं को जिम्मेदार माना है.सताने के मामले में बेटे भी ज्यादा पीछे नहीं. 38 फीसदी मामलों में उन्हें दोषी पाया गया है । बच्चे घर की रौनक होते हैं, वैसे ही घर के बुर्जुग भी घर की रौनक होते हैं। उन्होंने कहा कि बुजुर्गों के बिना घर अपनो के ही बच्चों के शिकार बुजुर्ग और परिवार के सभी सदस्यों का जीवन अधूरा है क्योंकि बुजुर्ग ही घर व परिवार के सच्चे मार्ग दर्शक हैं। 
 उन्होंने कहा कि बुजुर्गों के बिना युवा अच्छे संस्कारों से वंचित रह जाते हैं तथा कभी भी उन्नति नहीं कर पाते हैं मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव: - इस पंक्ति को बोलते हुए हमारा शीष श्रद्धा से झुक जाता है और सीना गर्व से तन जाता है । यह पंक्ति सच भी है जिस प्रकार ईश्वर अदृश्य रहकर हमारे जो परिवार में सर्वोपरि थे। और परिवार की शान समझे जाते थे आज उपेक्षित, बेसहारा और दयनीय जीवन जीने को मजबूर नजर आ रहे है यहां तक कि तथा कथित पढ़े लिखे लोग जो अपने आप को आधुनिक मानते है ,   वो आपकी मां ही है जिसने नौ माह तक अपने खून के एक एक कतरे को अपने शरीर से अलग करके आपका शरीर बनाया है और स्वयं गीले मे सोकर आपको सूखे में  सोती है, इन्ही मां-बाप ने अपना खून पसीना एक करके आपको पढ़ाया-लिखाया, पालन-पोषण किया  अपनी इच्छाओं  को खत्म कर करके आपकी छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी सभी जरूरतों को पूरा किया है। कुछ मां-बाप तो अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य के खातिर अपने भोजन खर्च से कटौती कर करके उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को विदेश भेजते रहे। उन्हें नही मालूम था कि बच्चे अच्छा कैरियर हासिल करने के बाद उनके पास तक नही आना चाहेंगे। वे मां-बाप तो अपना यह दर्द किसी को बता भी नही पाते। यह आपके पिता ही है जिन्होंने अपनी पैसा-पैसा करके जोड़ी जमा पूंजी और भविष्य निधि आपके मात्र एक बार कहने पर आप पर खर्च कर दी। आज स्वयं पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गये। तिनका-तिनका जोड़कर आपके लिए आशियाना बनाया और उन्हे अकेला छोड़कर अपनी इच्छा की जगह जाकर उन्हे दण्ड दे रहे है। आपने कभी सोचा है कि मां-बाप ने यह सब क्यों किया।

 मां-बाप जो मुकाम स्वयं हासिल नही कर पाये उन्हें आपके माध्यम से पूरा करना चाहते है लेकिन बच्चे उनका यह सपना चूर-चूर कर देते हैं।  बुजुर्ग शब्द दिमाग में आते ही उम्र व विचारों से परिपक्व व्यक्‍ित की छवि सामने आती है । बुजुर्ग अनुभवों का वह खजाना है जो हमें जीवन पथ के कठिन मोड़ पर उचित दिशा निर्देश करते हैं ।  बुजुर्ग घर का मुखिया होता है इस कारण वह बच्चों, बहुओं, बेटे-बेटी को कोई गलत कार्य या बात करते हुए देखते हैं तो उन्हें सहन नहीं कर पाते हैं और उनके कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं जिसे वे पसंद नहीं करते हैं । वे या तो उनकी बातों को अनदेखा कर देते हैं या उलटकर जवाब देते हैं । जिस बुजुर्ग ने अपनी परिवार रूपी बगिया के पौधों को अपने खून पसीने रूपी खाद से सींच कर पल्लवित किया है, उनके इस व्यवहार से उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचती है । बुजुर्गों में चिड़चिड़ाहट उनकी उम्र का तकाजा है । वे गलत बात बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं, इसलिए परिवार के सदस्यों को उनकी भावनाओं व आवश्यकता को समझकर ठंडे दिमाग से उनकी बात सुननी चाहिए । कोई बात नहीं माननी हो तो, मौका देखकर उन्हें इस बात के लिए मना लेना चाहिए कि यह बात उचित नहीं है । सदस्यों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई ऐसी बात न करें जो उन्हें बुरी लगे । हम अपने आस-पास किसी ना किसी बुजुर्ग महिला या पुरूष पर अत्याचार होते देखकर, उनका निजी मामला है  ऐसा कहकर क्या अपनी मौन स्वीकृति नही दे रहे है ? आज कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ी है यह अच्छी बात है लेकिन इसका तात्पर्य यह नही है कि बुजुर्ग मां-बाप आपके मात्र चौकीदार और आया बनकर रह जायें। बुजुर्ग महिला अपने पोते-पोतियों की दिन भर सेवा करे, शाम को बेटे-बहू के आॅफिस से आने पर उनकी सेवा करे। क्या इसी दिन के लिए पढ़ी-लिखी कामकाजी लड़की को वह अपनी बहू बनाती है। लेकिन क्या करे मां का बड़ा दिल वाला तमगा जो उसने लगा रखा है सभी दर्द को हॅसते-हॅसते सह लेती है। कभी उसके दिल के कोने में झांक कर देखों छिपा हुआ दर्द नजर आ जायेगा। यदि आप अपना कर्ज चुकाना चाहते है तो दिल के उस कोने का दर्द अपने प्यार से मिटा दो।  बुजुर्ग सिर्फ इज्जत से जीना चाहते हैं। विश्व में बुजुर्गों की संख्या लगभग 60 करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में प्रत्येक पांच में से एक बुजुर्ग अकेले या अपनी पत्नी के साथ जीवन व्यतीत कर रहा है, अधिकतर बुजुर्ग डिप्रेशन, आर्थराइटिस, डायबिटीज एवं आंख संबंधी बीमारियों से ग्रस्त हैं और महीने में औसतन 11 दिन बीमार रहते हैं। सबसे ज्यादा परेशानी उन बुजुर्गों को होती है, जिनके पास आय का कोई स्रोत नहीं है। हेल्पेज इंडिया द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि देश के लगभग 10 करोड़ बुजुर्गों में से पांच करोड़ से भी ज्यादा बुजुर्ग आए दिन भूखे पेट सोते हैं। देश की कुल आबादी का आठ फीसदी हिस्सा अपने जीवन की अंतिम वेला में सिर्फ भूख नहीं, बल्कि कई तरह की समस्याओं का शिकार है। भारत में बुजुर्गों का मान−सम्मान तेजी से घटा है। यह हमारे सामाजिक−सांस्कृतिक मूल्यों का अवमूल्यन है, जिसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। हमारे देश में बुजुर्ग को परिवार के मुखिया की मान्यता हासिल है। आज भी हर शुभ कार्य में बुजुर्ग को याद किया जाता है और उनके आशीर्वाद एवं इजाजत से ही शुभ कार्य को आगे बढ़ाया जाता है। श्रवण कुमार का उदाहरण हमारे सामने है। जिसने अपने माता−पिता की सेवा करते−करते ही अपनी जान गंवा दी। हमारी सामाजिक−सांस्कृतिक मयार्दा तार−तार होकर रह गई है। इस बेरहम स्थिति के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?भारत में 60 साल से अधिक आयु के व्यक्ति को बुजुर्ग अथवा वरिष्ठ नागरिक का दर्जा हासिल है। इस आयु के व्यक्ति को बेहद सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। अस्सी साल का बुजुर्ग असहाय की श्रेणी में आ जाता है।


 विश्व में वर्तमान में 80 साल से अधिक उम्र के करीब 16 फीसदी लोग हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में बुजुर्गों की संख्या लगभग दस करोड़ है।  दरअसल नई पीढ़ी आत्मग्रस्त होती जा रही है। बसों में वे सीनियर सिटिजंस को जगह नहीं देते। बुजुर्ग अकेलापन झेल रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ी उन्हें लेकर बहुत उदासीन हो रही है , मगर हमें भी अब इन्हीं सबके बीच जीने की आदत पड़ गई है। सीनियर सिटिजंस की तकलीफ की एक बड़ी वजह युवाओं का उनके प्रति कठोर बर्ताव है। लाइफ बहुत ज्यादा फास्ट हो गई है। इतनी फास्ट की सीनियर सिटिजंस के लिए उसके साथ चलना असंभव हो गया है। एक दूसरी परेशानी यह है कि युवा पीढ़ी सीनियर सिटिजंस की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं- घर में भी और बाहर भी। दादा-दादियों को भी वे नहीं पूछते, उनकी देखभाल करना तो बहुत दूर की बात है। जिंदगी की ढलती  थकती काया और कम होती क्षमताओं के बीच हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का सबसे बड़ा रोग असुरक्षा के अलावा अकेलेपन की भावना है। भावनात्मक असुरक्षा के कारण ही उनमें तनाव, चिड़चिड़ाहट, उदासी, बेचैनी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। मानवीय संबंध परस्पर प्रेम और विश्वास पर आधारित होते हैं। जिंदगी की अंतिम दहलीज पर खड़ा व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों को अगली पीढ़ी के साथ बाँटना चाहता है, लेकिन उसकी दिक्कत यह होती है कि युवा पीढ़ी के पास उसकी बात सुनने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं होता।  वृद्धजनों के मानवाधिकारों का देश में आदर किया जा रहा है लेकिन हालात बड़ी तेजी से बदल रहे हैं और वृद्धजनों के मानवाधिकारोंके उल्लंघन की घटनाएं अब सामने आने लगी हैं। वृद्धजनों के साथ लोग अकसर बात करते हैं लेकिन पुरानी और युवा पीढ़ी के बीच फासलाबढ़ता जा रहा है क्यांकि परिवार में उनका रिश्ता मजबूत नहीं है। वृद्धजन सेवानिवृत्ति के बाद भी कमा सकते हैं लेकिन उनके लिए काम केअवसर नहीं हैं। लोग उन्हें बहुत अनुभवी, ज्ञानवान और बुद्धिमान मानते हैं लेकिन उनके प्रदर्शन पर संदेह करते हैं। बूढ़ा तो एक दिन सबकोहोना है इसलिए वृद्धजनों को आदरणीय श्रेणी में वगीर्कृत किया जाना चाहिए। विभिन्न कारणों से अधिकांश वृद्धजन खुद को असुरक्षितमहसूस करते हैं। संयुक्त परिवार प्रणाली का टूटना इसका मुख्य कारण है।   वृद्धजनों के साथ भेदभाव होना आम बात है लेकिन वे शायद ही कभी इसकी शिकायत करते हैं और इसे सामाजिक परिपाटी मानतेहैं। कार को वृद्धजनों की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर ध्यानदेना चाहिए और साथ ही समाज को भी इसकी कुछ व्यवस्था करनी चाहिए ताकि वृद्धजन परेशानीमुक्त जीवन जी सकें। लोगों में वृद्धजनोंके लिए कानूनी प्रावधानों की जानकारी बढ़ रही है लेकिन अब भी कुछ लोगों को कानूनी प्रणाली पर संदेह है। बुढ़ापे में स्वास्थ्य देखभाल सबसेअधिक जरूरी है इसलिए इस बारे में सरकार और अन्य संबंधित हितधारकों को तुरंत कदम उठाने चाहिए। देश में वृद्धजनों के मानवअधिकारों का आदर किया जा रहा है लेकिन स्थिति बहुत तेजी से बदल रही है और वृद्धजनों के मानवाधिकारों के उल्लंघन एवं उनके साथदुर्व्यवहार की घटनाएं बढ़ रही हैं।      आवश्‍यकता इस बात की है कि परि‍वार में आरंभ से ही बुजर्गों के प्रति ‍अपनेपन का भाव वि‍कसि‍त कि‍या जाए। बच्‍चों में इस भाव को जगाने के साथ-साथ स्‍वयं भी इस बात को याद रखें कि‍आप वृद्धावस्‍था में अपने साथ कैसा व्‍यवहार चाहते हैं, वही अपने घर-परि‍वार के व समाज के वृद्धों के साथ करें। बच्‍चों को भी यही संस्‍कार दें। वि‍श्‍व में भारत ही ऐसा देश है जहां आयु को आशीर्वाद व शुभकामनाओं के साथ जोड़ा गया है। ऐसे में वृद्धजनों की स्‍थि‍ति‍पर नई सोच भावनात्‍मक सोच वि‍कसि‍त करने की जरूरत है ताकि‍हमारे ये बुजुर्ग परि‍वार व समाज में खोया सम्‍मान पा सकें और अपनापन महसूस कर सकें ।

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