भारत में तेजी से आर्थिक विकास होने के बावजूद देश में हर साल 4 लाख नवजात शिशुओं की 24 घंटे के भीतर मौत हो जाती है. मौत के प्रमुख कारणों में कुपोषण, निमोनिया और डायरिया जैसे रोग हैं, जिनका इलाज देश में सस्ता और आसान है। चैरिटी सेव द चिल्ड्रन नामक एन. जी. ओ. द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में यह पाया गया है कि विश्व में नवजात शिशुओं की मृत्यु में भारत का स्थान पांचवां है. यह संस्था वैश्विक अभियान के तहत दुनिया भर के सभी देशों में शिशुओं की मृत्यु दर में कमी लाने का प्रयास कर रही है. इस शोध में अगस्त और सितम्बर महीने में भारत सहित ब्रिटेन, इटली, चीन और केन्या जैसे देशों से 15,000 लोगों को शामिल किया गया था। भारत में सेव द चिल्ड्रन संस्था के प्रमुख थॉमस चंडी ने बताया कि भारत में सरकार की ओर से आम जनता को आधारभूत स्वास्थ्य सेवा दिए जाने की पहल के बावजूद देश में शिशु मृत्यु दर में कोई कमी नहीं हुई है. इस रिपोर्ट में 14 देश शामिल हैं. आंकड़ों के अनुसार हर साल लगभग 2 लाख शिशुओं की मौत जन्म के 24 घंटे के भीतर हो जाती है. यानि हर पन्द्रह सेकेंड पर एक शिशु की मौत हो जाती है. भारत में शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है यानि प्रति 1000 शिशुओं में 72 शिशुओं की मृत्यु हो जाती है, जो पड़ोसी देश बांग्लादेश से भी ज्यादा है. इतना ही नहीं हर साल देश में पांच साल की उम्र से पहले ही दो लाख बच्चों की मौत हो जाती है. हालांकि सरकार की ओर से स्वास्थ्य संबंधी कई योजनाएं हैं, जिसके लिए फंड है और संसाधन भी हैं. इसके बावजूद ज्यादातर जगहों पर स्वास्थ्य सेवाएं लोगों तक पहुंच नहीं पा रही हैं. दूर-दराज गांवों में जहां डॉक्टर ज्यादातर उपलब्ध नहीं होते लोग अपने बच्चों का इलाज अप्रशिक्षित और अनुभवहीन चिकित्सकों से करवाते हैं.चंडी के अनुसार नवजात शिशुओं की मृत्यु का सबसे प्रमुख कारण गरीबी है. इतना ही नहीं कई बार स्थानीय परम्पराएं और अंधविश्वास भी राह में रोड़े अटकाता है. कुछ आदिवासी समुदाय आज भी जन्म के बाद मां को शिशु स्तनपान कराने नहीं देते हैं.हालांकि टीकाकरण, घर की साफ-सफाई और स्तनपान जैसे विभिन्न प्रोग्रामों में चालीस अरब डॉलर निवेश करने से पहले की अपेक्षा मृत्यु दर में कमी हुई है. इस बारे में भारत की स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए इंटरव्यू में कहा, स्पष्ट है कि अभी भी बहुत कुछ करने की जरूरत है. हमें इस दिशा में वर्त्तमान संसाधनों का उपयोग करते हुए खास राज्यों में फोकस करने की आवश्यकता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 20 देशों में 44.5 लाख की आबादी वाला गोरखपुर शिशु मृत्यु दर के मामले में 18 वें नंबर पर है। इन आंकड़ों ने साफ कर दिया है कि गोरखपुर ने पश्चिमी अफ्रीका के रिपब्लिक आॅफ गाम्बिया की जगह ले ली है। इस देश की आबादी 19.18 लाख है। वहीं गोरखपुर को टक्कर देने में 62.90 और 64.60 शिशु मृत्यु दर वाले जाम्बिया और साउथ सुडान हैं। उल्लेखनीय है कि गोरखपुर में विगत तीन दशकों से बड़ी संख्या में बच्चों की अकाल मौतें हो रही हैं। यहां शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है। आंकड़े इतने चौंकाने वाले हैं, अगर गोरखपुर एक देश होता तो वह उन 20 देशों की जमात में शामिल होता जहां सबसे ज्यादा मृत्यु दर हैं। अगर स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो गोरखपुर में पैदा हुए 1000 बच्चों में से 62 बच्चे एक साल से पहले ही मर जाते हैं। पूरे उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 48 का है जबकि पूरे भारत में 1,000 में से 40 बच्चों की मौत हो जाती है। सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के यूएस के डेटा से वैश्विक स्तर पर तुलना करें तो गोरखपुर दुनिया के ऐसे 20 देशों में शामिल दिखता है, जहां शिशु मृत्यु दर का आंकड़ा सबसे ज्यादा है।एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 20 देशों में 44.5 लाख की आबादी वाला गोरखपुर शिशु मृत्यु दर के मामले में 18वें नंबर पर है। राजस्थान में इन आठ सालों में 5.12 लाख, बिहार में 6.54 लाख, झारखंड में 1.70 लाख, महाराष्ट्र में 2.92 लाख, आन्ध्र प्रदेश में 3.35 लाख, गुजरात में 2.95 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई. देश के चार राज्यों (उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश) में देश की कुल नवजात मौतों की संख्या में से 56 प्रतिशत मौतें दर्ज होती हैं.
वर्ष 2008 से 2015 की अवधि में भारत में 91 लाख बच्चे अपना पहला जन्म दिन नहीं मना पाए. इस अवधि में शिशु मृत्यु दर 53 से घटकर 37 पर आई है, पर फिर भी वर्ष 2015 के एक साल में ही
भारत के चार राज्यों, उत्तर प्रदेश (24.37 लाख), मध्य प्रदेश (8.94 लाख), राजस्थान (7.31 लाख) बिहार (10.3 लाख) में सबसे ज्यादा संकट की स्थिति है.
भारत के 56 प्रतिशत शिशु मृत्यु इन्हीं राज्यों में होती हैं. बहरहाल महाराष्ट्र (3.96 लाख), आंध्र प्रदेश (5.11 लाख), गुजरात (4.13 लाख) और पश्चिम बंगाल (3.68 लाख) की स्थिति भी बहुत दर्दनाक है. जब से वैश्विक स्तर पर सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की चर्चा शुरू हुई है, तबसे भारत में बच्चों के लिए कुछ स्वास्थ्य योजनाएं जरूर बनने लगी हैं, किन्तु उनका दायरा ह्लजागरूकताह्व तक ही सीमित रहा है.भारत में वर्ष 2008 से 2015 की अवधि में पांच साल से कम उम्र के 1.13 करोड़ बच्चे दुनिया से कूच कर गए. हमने उनका स्वागत नहीं किया, हमने उन्हें संभाला नहीं और उनका जीवन मुरझा गया.
इनमें से 31.11 लाख बच्चों की मृत्यु उत्तर प्रदेश में, 11.59 लाख बच्चों की मृत्यु मध्य प्रदेश में, 8.9 लाख बच्चों की मृत्यु राजस्थान में, 13.40 लाख बच्चों की मृत्यु बिहार में हुई.
छोटे बच्चों की मृत्यु के बड़े कारण व्यवस्थित वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अध्ययनों से नवजात शिशु मृत्यु दर इतनी ज्यादा होने के चार महत्वपूर्ण कारण पता चले- समय से पहले जन्म लेने के कारण होने वाली जटिलताएं (43.7 प्रतिशत), विलंबित और जटिल प्रसव के कारण (19.2 प्रतिशत), निमोनिया, सेप्सिस और अतिसार यानी संक्रमण के कारण (20.8 प्रतिशत), जन्मजात असामान्यताओं के कारण (8.1 प्रतिशत).
भारत के महापंजीयक की नमूना पंजीयन प्रणाली (एसआरएस) के मुताबिक भारत में शिशुओं की मौत का कारण समय पूर्व जन्म लेना और जन्म के समय बच्चों का वजन कम होना (35.9 प्रतिशत), निमोनिया (16.9 प्रतिशत), जन्म एस्फिक्सिया एवं जन्म आघात (9.9 प्रतिशत), अन्य गैर संचारी बीमारियां (7.9 प्रतिशत), डायरिया रोग (6.7 प्रतिशत), जन्मजाति विसंगतियां (4.6 प्रतिशत) और संक्रमण (4.2 प्रतिशत) हैं.
हाल ही में आई यूनिसेफ की रिपोर्ट चेताती है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के मामले में भारत की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। भले ही इस मामले में हम पाकिस्तान से बेहतर स्थिति में हों, लेकिन हमारी स्थिति बांग्लादेश, नेपाल और भूटान से भी बदतर है। भारत नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के मामले में इथियोपिया, गिनी-बिसाऊ, इंडोनेशिया, नाइजीरिया और तंजानिया के समकक्ष खड़ा दिख रहा है। भारत में हर साल जन्म लेने वाले 2 करोड़ 60 लाखों बच्चों में से 40 हजार अपने जन्म के 28 दिनों के भीतर ही मौत के मुंह में समा जाते हैं। अर्थात यहां शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर 29 है। भारत में हर साल सात लाख नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है। दुनिया में होने वाली नवजात शिशुओं की मौत में भारत की हिस्सेदारी 26 प्रतिशत है। शिशु मृत्यु दर में दुनिया में भारत का स्थान पांचवां है। भारत में वर्ष 2008 से 2015 के बीच हर रोज औसतन 2137 नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई। देश में अब भी शिशु मृत्यु की पंजीकृत संख्या और अनुमानित संख्या में बड़ा अंतर दिखाई देता है। भारत में शिशु मृत्यु दर देश के विकास के सभी मानकों को धराशायी कर रही है। बीते आठ सालों में देश में पांच साल की उम्र से पहले 1.3 करोड़ बच्चों की मौत हुई। चार राज्यों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश में कुल नवजात मौतों की 56 प्रतिशत मौतें दर्ज हुई। वर्ष 2008 से 2015 के बीच भारत में 1.13 करोड़ बच्चे अपना पांचवां जन्मदिन नहीं मना पाए। इनमें 62.4 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। प्रश्न उठना लाजमी है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के मामले में भारत की स्थिति इतनी शोचनीय और चिंताजनक क्यों है? जब इसकी पड़ताल की गई तो यह तथ्य प्रकाश में आया कि महिलाओं की स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए आबंटित धनराशि का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। वर्ष 2014-15 से 2016-17 के बीच बच्चों और महिलाओं के लिए भारत सरकार द्वारा 31,890 करोड़ रुपए आबंटित किए गए। लेकिन इसमें से 7951 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं हो पाए। अगर राज्यों में इस व्यय पर नजर डालें तो इन तीन वर्ष की अवधि में बिहार को स्वास्थ्य बजट में 2947 करोड़ रुपए मिले, जिसमें से 838 करोड़ रुपए खर्च नहीं हो पाए। मध्यप्रदेश में 2677 करोड़ के स्वास्थ्य बजट में 445 करोड़, राजस्थान में 2079 करोड़ में से 552 करोड़, उत्तर प्रदेश में 4919 करोड़ में से 1643 करोड़ तथा महाराष्ट्र में 2119 करोड़ रुपए के बजटीय आबंटन में से 744 करोड़ रुपए खर्च नहीं हो पाए।भारत में नवजात मृत्यु, शिशु मृत्यु व मातृ मृत्यु की ऊंची दर हमेशा से चिंता का विषय रही है। इस स्थिति की प्रमुख वजह मूलभूत सुविधाओं की कमी के साथ ही सरकारी नीतियों की अदूरदर्शिता और प्रशासनिक लापरवाही भी है। दूरदराज के गांवों और आदिवासी अंचलों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र न होने के कारण आज भी प्रसूताओं को कई किलोमीटर की दूरी तय कर इन केंद्रों तक ले जाना पड़ता है, जहां प्रसव संबंधी न्यूनतम सुविधाएं और संसाधन प्राय: नदारद पाए जाते हैं। ऐसे में भात में, शिशु और मातृ मृत्यु की ऊंची दर बेहद चिंताजनक तो है, पर हैरानी का विषय नहीं है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हर रोज जितनी महिलाएं प्रसव के दौरान मरती है उससे कहीं ज्यादा गर्भ संबंधी बीमारियों की शिकार होती हैं जिसका असर लम्बे समय तक उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। आज भी भारत में औसतन सात हजार की आबादी पर एक ही डॉक्टर है। 2002 की स्वास्थ्य नीति की अनुशंसा के बावजूद हम आज तक स्वास्थ्य पर कुल जीडीपी के दो फीसद के बराबर राशि खर्च करने का प्रावधान लागू नहीं कर पाए। इसी का नतीजा है कि चिकित्सा क्षेत्र की तमाम प्रगति के बावजूद हम शिशु और मातृ मृत्यु दर को नियंत्रित करने के मामले में फिसड्डी ही साबित हुए हैं। भारत में नवजात शिशुओं की मौत का कारण कुपोषण, निमोनिया और डायरिया जैसी बीमारियां है। ‘सेव द चिल्ड्रन’ संस्था के प्रमुख थॉमस चांडी का मानना है कि भारत में सरकार की ओर से आम जनता को आधारभूत स्वास्थ्य सेवा दिए जाने की पहल के बावजूद शिशु मृत्यु दर में कोई खास कमी नहीं आई है। स्वास्थ्य सेवाएं सभी तक नहीं पहुंच पाना भी इसकी एक बड़ी वजह है। यदि लोगों को आसानी से मिलने वाले सहज इलाज का ज्ञान हो जाए तो इन शिशुओं की मृत्यु काफी हद तक रोकी जा सकती है। आज भी देश की आधी से ज्यादा महिलाओं का प्रसव किसी प्रशिक्षित धाई के बिना होता है। गरीबी और स्थानीय परम्पराएं तथा अंधविश्वास भी शिशु मृत्यु दर में वृद्धि का कारक बनते हैं। शिशुओं की मौत की त्रासदी की जड़ें लैंगिक भेदभाव और स्वास्थ्य व पोषण सेवाओं को खत्म किए जाने की नीति में भी दबी हुई हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में 26.8 प्रतिशत लड़कियों के विवाह अठारह साल से कम उम्र में हो जाते हैं, जिससे उन लड़कियों के कम उम्र में गर्भवती होने के कारण वे कमजोर, कुपोषित और असुरक्षित हो जाती हैं। केवल इक्कीस प्रतिशत महिलाओं को ही प्रसव-पूर्व सेवाएं- जैसे चार स्वास्थ्य जांचें, टिटनेस का इंजेक्शन और सौ दिन की आयरन फोलिक एसिड की खुराक आदि- मिल पाती हैं। विवाह अठारह साल से कम उम्र में होने से बच्चे कमजोर और कुपोषण का शिकार हो जाते हैं।
ऐसे में सुरक्षित प्रसव और नवजात के जीवन की सुरक्षा आखिर की जाए तो कैसे! चूंकि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की प्रगति के लिए निवेश बहुत कम हो पाता है, इस तरह प्रकारांतर से प्रसूताओं को निजी सेवाओं की ओर धकेला जाता है। शहरी व ग्रामीण दृष्टि से भी भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर में असमानता है। शहर में नवजात मृत्यु दर 15 है जबकि गांव में यह 29 है। 1 जनवरी 2017 से लागू मातृत्व लाभ योजना से भी असंगठित क्षेत्र की सत्तर प्रतिशत महिलाएं वंचित हैं। 35.9 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मृत्यु का कारण उनका समय से पहले जन्म लेना, जन्म के समय वजन कम होना, मां का दूध नहीं मिलना और संक्रमण का शिकार होना है। भारत के महापंजीयक के मुताबिक संक्रमण के कारण 23.6 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु होती है जिनमें 16.9 प्रतिशत निमोनिया के कारण और 6.7 प्रतिशत डायरिया के कारण मौत के मुंह में समा जाते हैं। नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में वृद्धि की अन्य वजहों में कम उम्र में विवाह के साथ ही गर्भावस्था के दौरान समुचित भोजन की कमी और भेदभाव, मानसिक-शारीरिक अस्थिरता, विश्राम और जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं न मिलना, सुरक्षित प्रसव न होना आदि प्रमुख हैं। कुल मिलाकर शिशु मृत्यु दर में वृद्धि के तमाम कारणों में एक भी ऐसा नहीं है जिस पर नियंत्रण न पाया जा सके। जागरूकता, इच्छाशक्तिऔर कर्तव्यपरायणता के बल पर इस पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जबकि देश के नौनिहालों के जीवन से जुड़े इस विषय को संजीदगी से लिया जाए। क्या वजह है कि बात-बात पर संसद की कार्यवाही ठप करने वाले माननीयों की संवेदना इन मासूमों के सवाल पर जागृत नहीं होती! क्यों शिशु मृत्यु दर का मुद्दा चुनाव घोषणापत्र का विषय नहीं बन पाता!